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ज्ञान प्राप्ति और धर्म प्रचार मनुष्य में पूर्णपने की संपूर्ण शक्ति विद्यमान है यह विश्वास पात्मवाद के सुरभ्य जमाने में प्रत्येक व्यक्ति को हृदयंगम था । किन्तु इस आधनिक पुद्गलवाद के दौरदौरे में यह विश्वास बहत कुछ लुप्त हो रहा है। लोग इस प्राकृतिक श्रद्धान-आत्मविश्वास की ओर से विमुख हो रहे हैं। मात्मवाद की रहस्यमय घटनामों को उपहास की दृष्टि से देख रहे हैं। मनुष्य की अपरिमित प्रात्मशक्ति में आज प्रायः लोगों को अविश्वास ही है, किन्तु सत्य कभी अोझल हो नहीं सकता। धूल की कोटि राशि उस पर डाली जाय, परन्तु उसका प्रखर प्रकाश ज्यों का त्यों रहेगा। आत्मवाद एक प्राकृतिक सिद्धान्त है उसका प्रभाव कभी मिट नहीं सकता। परिणामतः आज इस भौतिक सभ्यता में पालित और शिक्षित दीक्षित हुए विद्वान् हो इसके अनादि निधन सिद्धान्तों को प्रत्यक्ष प्रमाणों द्वारा स्वीकार करने को बाध्य हए हैं। सर मोलीवर लाज महोदय इन विद्वानों में अग्रगण्य हैं। इन्होंने अपने स्वतन्त्र प्रयत्नों और आविष्कारों द्वारा यह प्रमाणित कर दिया है कि मनुष्य में अनन्त शक्ति है। स्वयं परमात्मा को प्रतिमूर्ति उसके भीतर मौजूद है। इस शरीर के नाश के साथ, उसका अन्त नहीं हो जाता । वह जीवित रहता और परमोच्च जीवन को प्राप्त करता है।
ये उद्गार यथार्थ सत्य हैं। भारत में इनको मान्यता और उपासना युगों पहिले से होती आई है। और आज भी इस पवित्र भूमि में इस मान्यता को ही आदर प्राप्त है, किन्तु नतन सभ्यता के मदमाते नवयुवक प्राज इस प्राचीन सत्य को सहसा गले उतारने में हिचकते दृष्टि पड़ते हैं। अतएव प्रात्मबाद के लिए भौतिक संसार के प्रख्यात् बिद्वान के उक्त उद्गार होत्पादक शुभ चिन्ह हैं । इनमें पाशा की वह रेखा विद्यमान है जो निकट भविष्य में संसार को प्रात्मवाद के सुख मार्ग पर चलते दिखायेगी ! उस समय सारा संसार यदि जैनाचार्य के साथ यह घोषणा करते दिखाई दें तो कोई पाश्चर्य नहीं कि :
यः परात्मा स एवाहं योऽहं स परमस्तथा।
अहमेव मयोपास्यो नान्यः कश्चिदिति स्थितिः ।। भावार्थ-जो परमात्मा है वही मैं हं तथा जो मैं हूँ सो ही परमात्मा है। इसलिए मैं ही मेरे द्वारा भक्ति किये जाने के योग्य हूं और कोई नहीं, ऐसी वस्तु की स्थिति है । वस्तुतः इस यथार्थ वस्तुस्थिति के अनुरूप में यदि मनुष्य निरालम्ब हो पौद्गलिक प्रभाव से मुख मोड़ ले तो वह इस सत्य के दर्शन सुगम कर ले। फिर इसी धुन में उसे शांति और सुख का अनुभव प्राप्त हो और वह इसी सत्य की उच्च तान लगाये और कहे :
जिन घट में परमात्मा, चिन्मूरति मइया ।
ताहि बिलोक सुदृष्टिधर, पंठित परखैय्या ।। यह प्राचीन सत्य है। भारत के पुरुषों ने इसकी ही सर्वथा घोषणा की थी। घोषणा ही नहीं, प्रत्युत तदप प्राचरण करके उन्होंने यथार्थता में वस्तुस्थिति के प्रत्यक्ष दर्शन लोगों को करा दिये थे। भगवान महावीर और म. बुद्ध भी उन्हीं भारतीय पुरातन पुरुषों की गणना में से बाहर नहीं हैं, यद्यपि म० बद्ध के विषय में इतना अवश्य है कि उन्होंने सामयिक परिस्थिति को सुधारने के लिए प्रकट रूप में आत्मा के अस्तित्व से इन्कार किया था, परन्तु अन्ततः अस्पष्ट रूप में उनको उनका अस्तित्व और महत्व स्वीकार करना पड़ा था, यह हम अगाड़ी देखेंगे, अतएव यहाँ पर हमको देखना है कि इन दोनों युग-प्रधान पुरुषों ने किस रीति से इस यथार्थ प्रार्य सत्य के दर्शन किये थे?
म० बुद्ध के विषय में हम देख पायें हैं कि वे परिव्राजक आदि साधनों के मतों का अभ्यास करके, जैन साधु को ज्ञानध्यानमय अवस्था को प्राप्त हुए थे। उस अवस्था में उन्होंने छः वर्ष का कठिन तपश्चरण धारण किया था। इस तपश्चरण में उनका शरीर बिल्कुल सूख गया था। वे बिल्कूल शिथिल हो गये थे परन्तु उनमे यह सब तपश्चरण निदान बांधकर प्रबुद्ध होने की तीन पाकाँक्षा से किया था, इसीलिए वह इच्छित फल को न दे सका। बस, म० बद्ध ने जब देखा कि इस कठिन तपश्चरण द्वारा भी उनको उद्देश्य की प्राप्ति नहीं होती, तो उन्होंने कहा :
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