Book Title: Bhagavana  Mahavira aur unka Tattvadarshan
Author(s): Deshbhushan Aacharya
Publisher: ZZZ Unknown

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Page 890
________________ हया था, वह भी हमारी व्याख्या की पुष्टि करता है देवदत्त ने मा बुद्ध से भिक्षों को दैनिक क्रियाओं को अधिक संयममय बनाने को, एवं मांस भोजन की मनाई करने को कहा था । इस ही पर बौद्ध संघ में बिच्छेद खड़ा हुआ था अब यह स्पष्ट ही है कि उस समय सिवाय भगवान महाबोर के कोई प्रख्यान मतप्रवर्तक ऐसा नहीं था जिसने अहिंसा धर्म के महत्व को पूर्ण प्रगट किया हो और मांस खाने को पाप क्रिया बताई हो। बौद्धों के मांस भक्षण और साधु अवस्था में भी शिथिलता रखने के लिए जैन शास्त्रों में उन पर कटाक्ष किये गये हैं। तथापि बौद्ध संघ के इस विच्छेद के कितने ही वर्षों पहले से भगवान अहिंसा और तपस्या का उपदेश दे ही रहे थे। इस अवस्था में यह स्पष्ट है कि बौद्ध संघ में यह विच्छेद भगवान महावीर के दिव्योपदेश के कारण ही खड़ा हुआ था। इसके साथ ही बौद्धों के महावग्म से विदित होता कि इसी समय म० बुद्ध के पास एक बौद्ध भिक्ष नग्न होकर आया था और नग्नावस्था की विशेष प्रशंसा करके बौद्ध साधनों को उसे धारण करने की प्राज्ञा देने की उनसे प्रार्थना करने लगा था। यह भी हमारी व्याख्या का समर्थन करता है, क्योंकि उस समय भ० महाबीर के दिव्योपदेश से दिगम्बरता (नम्नत्व) का प्रभाव विशेष बढ़ा था और यही कारण म बुद्ध के साथ भिक्षुओं की संख्या घटने का मालूम पड़ता है। हम पूर्व परिच्छेद में देख चुके हैं कि जब म० बुद्ध अन्धकविन्द में थे। तब उनके साथ १२५० भिक्ष थे, परन्तु बौद्ध संघ विच्छेद अबसर के लगभग ही जब वे आपन से कुसीनारा को गये थे तब उनके साथ सिर्फ २५० भिक्षु रह गये थे। इससे यह स्पष्ट है कि इस समय भगवान महावीर के धर्म की मान्यता जनता में विशेष हो गई थी, जिसका प्रभाव म० बुद्ध और उनके संघ पर भी पड़ा था । वास्तव में जैन तीर्थकर के जीवन में केवलज्ञान (सर्वज्ञता) प्राप्त करके धर्मोपदेश देने का ही एक अवसर ऐसा है जो अनुपम और अद्भुत प्रभावशाली है। इस बात की पुष्टि प्राचीन से प्राचीन उपलब्ध जैन साहित्य से होती है। प्रतएव उक्त जो हम भगवान महावीर के इस दिव्य अवसर का दिव्य प्रभाव म. बुद्ध और उनके संघ पर पड़ा देखते हैं सो उसमें कुछ भी अत्युक्ति नहीं है। तीर्थकर भगवान का विहार समवसरण सहित और उनका उपदेश वैज्ञानिक ढंग पर होता है, क्योंकि वे सर्वज्ञ होते हैं, जैसे कि हम भगवान महावीर के विषय में देख चुके हैं । तथापि सर्वज्ञ तीर्थकर भगवान की पुण्य प्रकृति के प्रभाव में ४०० कोस तक पहें और दुनिया आदि दूर हो जाते हैं और उनके समवसरण में मानस्तम्भ के दर्शन करते ही लोगों का मिथ्याज्ञान और मान काफूर हो जाता है। इस दशा में अवश्य ही भगवान महावीर का दिव्य प्रभाव सर्वत्र अपना कार्य कर गया होगा, जैसा कि बुद्ध ग्रन्थों से झलकता है, अतएव म बुद्ध के जीवन पर भगवान महावीर का प्रभाव पड़ा व्यक्त करना बिल्कुल युक्तियुक्त मालूम होता है। यही कारण प्रतीत होता है कि म० बुद्ध ७२ वर्ष की अवस्था में सामान्य रूप से राजगृह में प्राकर छुपकर एक कुम्हार के यहाँ रात्रि बिताते हैं। इसके साथ ही भगवान महावीर के निर्वाण लाभ के समाचार बौद्ध संघ के लिए एक हर्ष प्रद समाचार थे, यह बौद्ध ग्रन्थ के निम्न उद्धरण से प्रमाणित है वहाँ लिखा है कि - "पावा के चन्ड नामक व्यक्ति ने मल्लदेश के सामगाम में स्थित मानन्द को महान तीर्थकर महावीर के शरीरान्त होने की खबर दी थी । प्रानन्द ने इस घटना के महत्व को झट अनुभव कर लिया और कहा 'मित्र चन्ड' यह समाचार तथा गत के समक्ष लाने के योग्य हैं । प्रस्तु, हमें उनके पास चलकर यह खबर देना चाहिए । वे बुद्ध के पास दौड़े गये, जिन्होंने एक दीर्घ उपदेश दिया। इस वर्णन के शब्दों में स्पष्टत. एक हर्ष भाव झलक रहा है और हर्ष तब ही होता है जब कोई बाधक वस्तु उद्देश्य मार्ग से दूर हुई हो । इसलिए इससे भी साफ प्रकट है कि भगवान महावीर के धर्म प्रचार के कारण बुद्ध देव को अवश्य ही अपने मध्य मार्ग के प्रचार में शिथिलता सहन करनी पड़ी थी और वह शिथिलता भगवान महावीर के निर्वाणासीन होते ही दूर हो गई, जैसे कि हम पहले देख चुके हैं । इस विषय में एक प्राच्यविद्याविशारद का भी वही कथन है कि भगवान महावीर के निर्वाण लाभ से माहत्मा बुद्ध और उनके मुख्य शिष्य सारीपुत्त ने अपने धर्म का प्रचार करने का विशेष लाभ उठाया था। अतएव यह स्पष्ट होता है कि म. बुद्ध के ५० से ७० वर्ष के जीवन अन्तराल के घटनाक्रम का प्रायः न मिलना भगवान महावीर के दिव्योपदेश के कारण था इस दशा में डा० हानले साहब को उपरोल्लिखित गणना विशेष प्रमाणिक प्रतिभाषित होती है, जिसके कारण म० बुद्ध और भगवान महावीर के पारस्परिक जीवन सम्बन्ध वैसे ही सिद्ध होते है जैसे कि हम ऊपर देख चुके हैं, किन्तु बौद्ध शास्त्रों में एक स्थान पर महात्मा बुद्ध को उस समय के प्रख्यात मत प्रवर्तकों में सर्व लधु लिखा है, परन्तु उन्हीं के एक अन्य शास्त्र में म० बुद्ध इस बात का कोई स्पष्ट उत्तर देते नहीं मिलते हैं । वह वहाँ प्रश्न को टालने ७८४

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