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अव यह तो जान लिया कि इस अनादि निधन लोक में कर्मजमित परिस्थिति में अनन्त आत्माएँ अपने स्वभाव को गंवाये भटक रहीं हैं, परन्तु इस भटकन का भी कोई क्रम है या नहीं ? भगवान महावार ने इसका भी एक क्रम हमको बतलाया है। यह क्रम जीवन के विविध रूप नियत करता है। जैन धर्म में इनका उल्लेख 'गति' के नाम से किया गया है और ये चार प्रकार हैं (१) देवगति, (२) मनुष्य गति, (३) तिर्यंचगति, (४) नरक गति । देवगति में प्रात्मा स्वगों में जन्म लेता है, जहां विशेष ऐश्वर्य और सुख का उपभोग बह करता है, किन्तु यहां भी वह दुःख और पोड़ा से बिल्कुल मुक्त नहीं है। दूसरी गति मनुप्य भव है और इसके भाग्य में मुख और दुःख दोनों ही बदे हैं, तिस पर उसमें दुःख की मात्रा ही अधिक है। तीसरी तिर्यंच गति में पशु, पक्षी, कोई, मकोड़े, वृक्ष, लता, अग्नि, जल, वायु प्राजीवन- भवभित है। इस गति में प्रात्मा को और अधिक दुःख और पीड़ा भुगतनी पड़ती है। अंतिम नरक गति नकं का वास है। यहां घोर दुःख और असह्य पीड़ाय सहन करनी पड़ती हैं। इन चार की भी अन्तर्दशायें हैं, परन्तु इन सब का लक्षण जाना और मरना हो है। इन गतियों में से प्रात्मा किसो भी गति में जाये उसके शुभाशुभ कर्म अपने आप उसके साथ जावेंगे। इसलिए किसो भत्र में भी उपार्जन किया हुआ पुण्य प्रकारथ नहीं जाता है। इनमें से स्वर्ग और नर्क को बासी यात्मायें अपने प्राय के पूरे दिनों का उभाग करतो हैं -इनकी अकाल मृत्यु नहीं होती, परन्तु शेष दो गतियों के जीव अपनी प्रायु के पूर्ण होने के पहले भी मरण कर जाते हैं। नरक गति में शरीर के टुकड़े २ कर दिये जायं, परन्तु वह नष्ट नहीं होता । पारे को तरह बह अलग होकर भी जुड़ जाता है। तिर्थरगति में दो प्रकार के जीव हैं—१) समनस्क अर्थात् मनवाले और (२) अमनस्क अथात् बिना मन वाले जाव । यह फिर स्थावर-जो चल फिर न सके और वस----जो चल फिर सके के रूप से दो प्रकार हैं। जल, वायु, अग्नि, पृथ्वो, वनस्पति ग्रादि के रूप को प्रात्मायें स्थावर हैं। व एक इन्द्री रखते हैं और भय लगने पर भी भाग नहीं सकते हैं। और त्रस, पशु, पक्षो प्रादि हैं। मनुष्य मुख्यतः आर्य और मलच्छ दो भागों में विभाजित हैं।
प्रत्येक संसारी आत्मा के उसकी गति के अनुसार एक प्रकार के प्राण भी हैं। यह प्राण संसारी आत्मा के शरीर द्वारा प्रगट हुए उपयोग का एक रूप है। ये कुल दस हैं (१) पांच इन्द्रिया (स्पर्शन, रसन, प्राण, चक्षु, श्रौत्र) (६) मन शक्ति, (७) वचन शक्ति, (८) कायशक्ति, (8) आयु और (१०) श्वासोश्वास। इन प्राणों के अनुसार हा आत्मा कर्म संचय कर सकती है और कषायों को रख सकती है इसीलिए आत्मानों की छ: लेश्याय वताई हैं। इनसे आत्मा के कषायों की तीव्रता ज्ञात होती हैं। यह मनमानि गोशाल केस: अभिजामि मिदान्त के मान नहीं है। उसके अनुसार तो मनुष्य आत्मायें ही छ: प्रकार की ठहरती हैं, परन्तु जैन सिद्धान्त में सब आत्माय अपने असली रूप में एक समान बताई गई हैं।
म. बुद्ध ने भी व्यक्ति के छः प्रकार के जीवन बताये हैं, और यह संभवतः स्वर्ग, नर्क, मनुष्य, पशु, पक्षी, प्रेत और असुर रूप हैं। जल, अग्नि, वायु और पृथ्वी में बुद्ध ने जीव स्वीकार नहीं किया । यद्यपि वनस्पति में जीव स्वीकार किया गया प्रतीत होता है। परन्तु इनमें से किसी का भी पूर्ण मार्मिक विवरण हमें बौद्ध धर्म में सामान्यत: नहीं मिलता है। इतना ज्ञात है कि पुण्य पाप में कर्म जो अज्ञानता के कारण किये जाते हैं उनसे जीवों में व्यक्ति का सद्भाव होता है।
यह जानने का प्रयत्न करने पर कि यह जीवन श्रम लोक में किस तरह पर अवस्थित है, म. बद्ध बतलाते हैं कि इस लोक में प्रगणित ससार क्षेत्र है, जिनके अपने २ स्वर्ग और नर्क हैं।
जहां तक एक सुर्य अथवा चन्द्रमा का प्रकाश पहुंचता है, वहां तक का प्रदेश एक सक्वल कहलाता है। प्रत्येक सक्वल में पृथ्वी, खण्ड, प्रान्त, डीप, समुद्र, पर्वत आदि होते हैं और उसके मध्य में "महामेरू पर्वत होता है। प्रत्येक राक्यल का आधार "अजताकाश' है, जिसके ऊपर "वापोलोव' अर्थात् बायुपटल ६६० योजन मोटा है। वापोलोव के वाद जनपोलोव है जो ४५०,००० योजन मोटाई का है। ठीक इसके ऊपर महापोलोव अर्थात् पृथ्वी है जो २४०,००० योजन माटी है। इस तरह प्रत्येक सक्चल अर्थात क्षेत्र को म बुद्ध ने तीन प्रकार के पटलां से वेष्ठित बतलाया था। यहां भी जैन सिद्धान्त को सादश्यता दष्टव्य है। अगाड़ी पाठक देखेंगे कि जैन सिद्धान्त में भी लोक को तीन वलयों से वेष्टित किस तरह बतलाया गया है। महामेरु जैन धर्म वा सुमेरु पर्वत प्रतीत होता है। बौद्ध इसे १६८००० योजन ऊँचा और इसके शिखर पर "तबुतिश' नामक देवलोक वतलाते है । जैनियों का सुमेरु पर्वत एक लाख योजन ऊंचा है और उसकी शिखिर के किचित अन्तर से स्वर्ग लोक के विमान प्रारम्भ होते बताये गये हैं। इससे एक बाल बराबर अन्तर पर सौधर्म स्वर्ग का विमान है। यहां भी सादृश्यता दृष्टव्य है। उपरान्त प्रत्यक सक्वल या पथ्वी में चार द्वीप की गणना बौद्ध शास्त्रों में की गई है अर्थात (१) उत्तर कुरुदिवयिन जो महामेरु की उत्तर और चौकाने ८००० योजन के विस्तार का है, (२) पूर्व विदेश-जो महामेक को पूर्व को और अर्धचन्द्राकार ७००० योजन विस्तार का है, (३अपरगोदान, जो महामेरु की पश्चिम प्रोर गोल दर्पण के आकार का ७००० योजन के विस्तार
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