Book Title: Bhagavana  Mahavira aur unka Tattvadarshan
Author(s): Deshbhushan Aacharya
Publisher: ZZZ Unknown

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Page 896
________________ हमा है। म० बद्ध के बताये हए जाहिरा कार्य-कारण लड़ी में इन संखारों त्री मुख्यता इसी रूप में मौजूद है। इन्हीं संखारों की प्रधानता को लक्ष्य करते हुए म० बुद्ध ने अपनी कार्य-कारण लड़ी का निरूपण इस तरह किया है "प्रज्ञान से संस्कार की उत्पत्ति होती है, इससे विज्ञान की, जिससे नाम श्रीर भौतिक देह उत्पन्न होती फिर नाम प्रौर भौतिक देह में षट्-क्षेत्र की सृष्टि होती है जो इन्द्रियों और विपयों को जन्म देती है। इन इन्द्रियों और उनके विषयों के प्रापसी संघर्ष से वेदना उत्पन्न होती है बेदना से तृष्णा होती है, जिससे उपादान पैदा होता है, जो भव का कारण है। भव से जन्म होता है। जन्म से बुढ़ापा, मरण, दुःरन, अनुसोचन, यातना, उद्वेग और नैरास्य उत्पन्न होते हैं। इस तरह दुःख का साम्राज्य बढ़ता है।" इस विवरण से हमें म० बुद्ध का संसार प्रवाह जाहिरा कार्य कारण के सिद्धान्त पर प्रवलम्बित नजर आता है । इसी कारण उसके अनुसार भी संसार में सनातन और अविच्छन्न प्रवाह मिलते हैं। इस अवस्था में यह जैन सिद्धान्त में स्वीकृत जन्म-मरण सिद्धान्त का रूपान्तर ही है। इनमें जो भेद है वह यहीं है कि बौद्धों के अनुसार प्रारम्भ में सर्व कुछ अज्ञान हो था। जैन सिद्धान्त में संसार परिभ्रमण सिद्धान्त का प्रारम्भ माना ही नहीं गया है। वह वहाँ अनादि निधन है। इस तरह बुद्ध का संसार प्रवाह मूल से ही जैन सिद्धान्त के बिरुद्ध है। . म० बुद्ध के उक्त विवरण में यदि हम यह जानने की कोशिश करें कि जन्म किसका होता है, तो हमें निराशा ही हाय पाएगी, क्योंकि आत्मा का अस्तित्व म० बुद्ध ने स्वीकार ही नहीं किया था। यद्यपि इस विषय में लोगों को अपनी मर्जी के मताबिक श्रद्धान बांधने की भी छुट्टी म बद्ध ने दे दी थी, जिससे बौद्ध शास्त्रों में भी आत्मवाद की झलक कहीं-कहीं दिखाई पड़ जाती है, परन्तु उन्होंने स्वयं यात्मवाद को ही प्रधानता दी थी। अभिधर्म का निरूपण करते हग बुद्ध ने यही कहा था किन कोई प्रात्मा है, न पुदगल है, न सत्य है और न जीव है।" यहां केवल ब्राह्मण सिद्धान्त में माने हुए आत्मा का ही खड़न नहीं है, बल्कि उस सिद्धान्त का भी जो शरीर से भिन्न एक जीवित पदार्थ मानकर मसार परिभ्रमण को घोषणा करता है। उनके अनुसार मनुष्य पांच स्कन्धों का समुदाय है, अर्थात् रूप संज्ञा, वेदना, संस्कार और विज्ञान । मनुष्य का वर्णन उसके उन भागों के वर्णन में किया गया है जिससे वह वना है और उसकी समानता एव. रथ से की है जो विविध अवयवों का बना, हा है और स्वयं उसका ब्यक्तित्व' कुछ नहीं है। यह मान्यता बद्ध के उपरान्त उनकी हीनयान सम्प्रदाय को अब भी मान्य है किन्तु महायान सम्प्रदाय इससे अगाडी बढ़कर पदाथों के अस्तित्व से ही इन्कार करता है। उसके निकट सब शून्य है, यह उपरान्त का सुधार है। म बद्ध के निकट तो अनित्यवाद ही मान्य था। इस अवस्था में इस प्रश्न या संतोषजनक उत्तर पाना कठिन है कि जन्म किसका होता है? म. बद्ध ने इस प्रश्न को अधुरा ही छोड़ दिया है। परन्तु जो कुछ उन्होंने कहा है उसका भाव यही है कि एक व्यक्ति जन्म लेता है और यह व्यक्ति केवल पांच बस्तुओं का समदाय है जिनको हम देख चुके । इससे यह व्यक्ति कोई सनातन नित्य पदार्थ नहीं माना जा सकता। सत्ता तो वह है ही नहीं। जिस प्रकार सब अवययों के पहले से मौजद रहने के कारण शब्द 'रथ' कहा जाता है वैसे ही जब उपरोहिलखित पाँच वस्तूय एकत्रित हई तब बद्ध ने "व्यक्ति" शब्द का उच्चारण किया। यह बौद्धों की मान्यता है और इससे हमारा प्रश्न हल नहीं होता, क्योंकि जिन पांचस्कन्धों का समुदाय व्यक्ति बताया गया है वह उस व्यक्ति के साथ ही खत्म हो जाते हैं। अगाडी इसी कार्य कारण लड़ी के अनुसार कहा गया है कि पर्यायावस्था चाल रहती है और वस्तुतः यहाँ सिवाय पर्यायान्तरित होने के कोई व्यक्ति है ही नहीं। इस पर्यायावस्था में पुरानी और नवीन पर्याय का सम्बन्ध चाल रखने के लिए, महानिदान, सूत्र में, माता के गर्भ में विज्ञान का उतरना बतलाया है। डा० कोथ इस मत को स्वीकार करने हैं और कहते हैं कि इस बक्तव्य-विशेषण से कि विज्ञान का उतराव होता है विज्ञान का पुरानी पर्याय से नवीन में जाना बिल्कुल स्पष्ट है और यह संभव है कि यह विज्ञान किसो प्रकार के शरीर सहित होता हो । म बुद्ध विज्ञान के चाल रहने से बिल्कुल सहमत हैं । इस प्रकार यद्यपि म० बुद्ध ने एक नित्य सत्तात्मक व्यक्ति का अस्तित्व स्वीकार किये बिना ही अपना सिद्धान्त निरूपित करना चाहा और संज्ञा की उत्पत्ति अपने आप पांच स्कन्धों में होती स्वीकार को, जिस तरह सांस्वदर्शन ने बतलाया है, परन्तु अंतत: उनको पर्यायप्रवाह में संज्ञा विज्ञान का चालू रहना मानना ही पड़ा। इस तरह इस निरूपण की कोताई साफ जाहिर है। भला बिना किसी सत्तात्मक नित्य नींब के सांसारिक पर्यायों का किला कैसे बांधा जा सकता है? किन्तु इस निरूपण में भी जैन सिद्धान्त की झिलमिली झलक नजर पड़ रही है। जैनियों के अनुसार इच्छा ही कर्म बंध की कारण है, जिसका मल श्रोत कर्म जनित मोहावस्था में है। इसलिए सत्तात्मक व्यक्ति (जीव)-जिसका लक्षण उपयोग संज्ञा है, इस अवस्था में सांसारिक दुःख और ७६०

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