Book Title: Bhagavana  Mahavira aur unka Tattvadarshan
Author(s): Deshbhushan Aacharya
Publisher: ZZZ Unknown

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Page 893
________________ कर चुके हैं, परन्तु इससे दोनों युग प्रधान पुरुषों ने जो शिक्षा जन साधारण को दी थी, उसका पूरा पता नहीं चलता है, इसलिये अगाड़ी के पृष्ठों में हम जैन धर्म और बौद्ध धर्म का भी सामान्य दिग्दर्शन करेंगे। भगवान महावीर और महात्मा बुद्ध का धर्म म. बुद्ध ने किस धर्म का निरूपण किया था, जब हम यह जानने की कोशिश करते हैं तो उनके जीवनक्रम पर ध्यान देने से असलियत को पा जाते हैं। वस्तुतः म० बुद्ध का उद्देश्य आवश्यक सुधार को सिरजने का था 1 इसलिए प्रारम्भ में उनका कोई नियमित धर्म नहीं था और न उन्होंने किसी व्यवस्थित धर्म का प्रतिपादन किया था, किन्तु अपने सुधारक्रम में उन्होंने पावश्यकतानुसार जिन सिद्धान्तों को स्वीकार किया था, उनका किंचित् दिग्दर्शन हम यहाँ करेंगे। सर्वप्रथम उनके धर्म के विषय में पूछते ही हमें बतलाया जाता है कि यह प्रकृति के नियमों को बतलाता है, मनुष्य का शरीर नाश के नियम के पल्ले पड़ता है, यही बुद्ध का प्रनित्यबाद है। जो कुछ अस्तित्व में ग्राता है उसका नाश होना अवश्यम्भावी है। भगवान महावीर ने भी धर्म का वास्तविक रूप वस्तुओं का प्राकुतिक स्वरूप ही बतलाया था। कहा था, "बस्तु स्वभाब ही धर्म है।" और इस तरह जाहिरा यहां पर दोनों मान्यतामों में साम्यता नजर पड़ती है, परन्तु यथार्थ में उनका भाव एक दूसरे के बिल्कुल विपरीत है। म. बुद्ध के हाथों से इस सिद्धान्त को वह न्याय नहीं मिला जो उसे भगवान महाबोर के निकट प्राप्त था। इसी कारण बौद्धदर्शन का अध्ययन करके सत्य के नाते विद्वानों को यही कहना पड़ा है कि बद्ध के सैद्धान्तिक विवेचन में व्यवस्था और पूर्णता दोनों की कमी है। बुद्ध के निकट सैद्धान्तिक विवेचन संसार दुःख का कारण था ऐसी दशा में इन प्रश्नों का वैज्ञानिक उत्तर मबद्ध से पाना नितान्त असम्भव है। इन प्रश्नों को उन्होंने अनिश्चित वातें ठहराया था। जब उनसे पूछा गया कि : क्या लोक नित्य है ? ___ क्या यही सत्य है और सव मत मिथ्या हैं। उन्होंने स्पष्ट रीति से उत्तर दिया कि "हे पोत्थपाद, यह वह विषय है जिस पर मैंने अपना मन प्रकट नहीं किया है ।" तब फिर इसी तरह पोत्थपाद ने उनसे यह प्रश्न किये । (२) क्या लोक नित्य नहीं है। (३) क्या लोक नियमित है? (४) क्या लोक अनन्त है ? (५) क्या प्रात्मा वही है जो शरीर है ? (६) क्या शरीर भिन्न है और आत्मा भिन्न है ? (७) क्या वह जिसने सत्य को जान लिया है मरणोपरान्त जीवित रहता है? (5) अथवा बह जीवित नहीं रहता है। (8) अथवा वह जीवित भी रहता है और नहीं भी रहता है ? (१०) अथवा वह न जीवित रहता है और वह नहीं जीवित रहता है ? और इन सबका उत्तर म० बुद्ध ने वही दिया जो उन्होंने प्रथम प्रश्न के उत्तर में दिया था। इस परिस्थिति में यह स्पष्ट अनुभव गम्य है कि म बुद्ध ने सैद्धान्तिक विवेचन की प्रारम्भिक बातों का स्थापन प्रकृति के नियमों के रूप में पूर्ण रीति से नहीं किया था जैसा कि बतलाया जाता है। भगवान महावीर के विषय में हम अगाडी देखगे । अतएव जब कभी म. बद्ध के निकट ऐसी अवस्था उपस्थित हुई तो उनने उसका समाधान कुछ भी नहीं किया। बोट दर्शन के विद्वान डा. कीथ वद्ध की इस परिस्थिति को बिल्कुल उचित बतलाते हैं। वह कहते हैं कि बुद्ध ने पहले ही कह दिया था कि वह अपने शिष्यों को इन विषयों में शिक्षा नहीं देंगे। म बुद्ध एक ऐसे हकीम है, जो ऐसी शिक्षा देते हैं जिससे शिष्य का वर्तमान जीवन सुखमय बने, किन्तु वास्तव में इन बातों को अस्पष्ट छोड़ देने से बुद्ध ने लोगों को अपने मनोकल निर्णय को मानने की स्वतन्त्रता दी है और यह क्रिया एक 'माध्यमिक के सर्वथा योग्य थी। ऐसा प्रतिभापित होता है कि बद्ध ने बस्तुमों के स्वभाव पर केवल उनकी सांसारिक अवस्था के अनुसार दुष्टिपात किया था। उन्होंने स्पष्ट कहा था कि लोक में कोई भी नित्य पदार्थ नहीं हैं पीरन ऐसे ही पदार्थ हैं जिनका सर्वथा नारा हो जाता है, प्रत्युत समस्त लोक एक घटनाक्रम है, कोई भी वस्तु किसी समय में यथार्थ नहीं हो सकती। इसलिए ऐसा कोई पदार्थ नहीं है जो प्रात्मा हो । शरीर (रूप) आत्मा से उसी तरह रहित है जिस तरह गंगा नदी में उतराता हुआ फेन का बदला है। (संयुक्त निकाय ३-१४०) परन्तु विस्मय है कि बुद्ध ने एकान्तवाद-अनित्यता का भी निरूपण पूरी तरह नहीं किया है। तो भी ७८७

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