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का ही प्रयत्न करते हैं । इससे यही विशेष उपयुक्त वसा होता है कि भा में पायान महावीर से सो कम से कम बुद्ध अवश्य ही बड़े थे, परन्तु एक मत प्रवर्तक की भाँति वे जरूर ही सर्व लघु थे, क्योंकि अन्य सर्व मत म० बुद्ध से पहिले के थे। इस तरह भगवान महावीर और म. बुद्ध के पारस्परिक जीवन सम्बन्ध वह ही ठीक जंचते हैं जो हम पूर्व में बतला चुके हैं।
भगवान महावीर और बुद्ध के पारस्परिक जीवन सम्बन्ध तो हमने जान लिए, परन्तु भगवान महावीर को मोक्ष लाभ मोर म० बद्ध का परिनिव्यान, जैसा कि बौद्ध कहते हैं, कब हुना यह जान लेना भी मावश्यक है। भगवान महावीर के निर्वाण काल के विषय में तीन मत पाये जाते हैं। एक के अनुसार यह घटना ईसवी सन् से ५२७ वर्ष पहले घटित हुई बतलायी जाती हैं। दूसरे के मुताबिक यह ४६८ वर्ष पहले मानी जाती है और तीसरा इसको विक्रमावद से ५५० वर्ष पहले घटित हा बतलाता है। इनमें पहले मत की मान्यता अधिक है और जैन समाज में वहीं प्रचलित है। दूसरा डा० जाल चारपेन्टियर का है जिसका समुचित प्रतिवाद मि० काशीप्रसाद जायसवाल ने प्रकट कर दिया है और वस्तुतः बौद्ध शास्त्रों के स्पष्ट उल्लेखों को देखते हए यह जी को नहीं लगता कि भगवान महावीर का निर्वाण म० बुद्ध के उपरान्त हुप्रा हो । यह हमारे पूर्व जीवन सम्बन्धी विवरण से भी बाधित है। और तीसरा मत थीयुत पं० नाथूराम जी प्रेमी का है। उनके आधार देवसेनाचार्य और अमितगत्याचार्य के उल्लेख हैं, जिनमें समय को निर्दिष्ट करते हुए विनाम नप की मृत्यु से ऐसा उल्लेख किया गया है। इसके विषय में जैन विद्वान पं० युगलकिशोर जी लिखते हैं कि यद्यपि, विक्रम की मृत्यु के बाद प्रजा के द्वारा उसका मत्यु संबत प्रचलित किये जाने की बात जी को कुछ कम लगती है, और यह हो सकता है कि अमितगति प्रादि को उसे मत्यु संवत समझने में कुछ गलती हुई हो, फिर भी उल्लेखों से इतना तो स्पष्ट है कि प्रमी जी का यह मत नया नहीं है-आज से हजार वर्ष पहले भी उस मत को मानने वाले मौजूद थे और उनमें देवसेन तथा अमितगति जसे आचार्य भी शामिल थे। इतना होते हुए भी हमें उपरोक्त जीवन सम्बन्ध विवरण को देखते हुए मुख्तार साहब से सहमत होना पड़ता है । इसके साथ ही यह दृष्टव्य है कि त्रिलोक प्रज्ञप्ति में जहां अन्य मत बीर निर्वाण संवत् में बतलाये गये हैं, वहीं इसका उल्लेख नहीं है। इस अवस्था में देवसेनाचार्य और अमितगति प्राचार्य ने भूल से ऐसा उल्लेख किया हो, तो कोई आश्चर्य नहीं। जिस प्रकार हमने म० बद्ध और भगवान महावीर का सम्बन्ध स्थापित किया है, उसको देखते हुए यही ठीक प्रतीत होता है। अब रहा केवल प्रथम मत जो प्रायः सर्वमान्य और प्रचलित है। इस मत की पुष्टि में निम्न प्रमाण बतलाये जाते हैं
(१) रातरि चदुसदगुत्तो तिणकाला विक्कमो हवइ जम्मो।
अठबरस बाललीला सोडसवासेहि भीम्मए देसे ॥१८॥ यह नन्दि संध की दूसरी पट्टावली की एक गाथा है, और विक्रम प्रबन्ध में भी पायी जाती है (जैन सिद्धान्तभाष्कर किरण ४ पृ०७५)
(२) णिध्वाणे वीरजिणे छठवाससदेसु पंचबरिसेसु ।
पणमासेसु गदेसु संजादो संगणियो अहवा ।।१।। __ यह गाथा आज से करीब १५०० वर्ष पहले की रची हुई 'तिलोयपण्णत्ति' की गाथा है और इसमें वीर निर्वाण प्राप्ति से ६०५ वर्ष ५ महीने बाद शक राजा हुआ ऐसा उल्लेख है।
(३) पण छस्सयवस्सं पणमास जुदं गमिय वीरणिध्वुइदो ।
सगराजो तो कक्की चदुनवत्तियमहिय सगमास ।।८५०।। यह त्रिलोकसार की गाथा है और इसमें 'तिलोयपण्णत्ति' को उपरोक्त गाथा की भांति वीर निर्वाण से ६०५ वर्ष ५ महीने बाद शक राजा का और ३६४ वर्ष ७ महीने बाद कल्कि का होना बतलाया है। (४) आर्य विद्यासुधाकर में भी लिखा है
ततः कलिनात्र खंडे भारते विक्रमात्पुरा । स्वमुन्यं वोधि विमते वर्षे विराजयो नरः ।।१।।
प्राचारज्जैन धर्म बौद्धधर्मसमप्रभम् ।। (५) सरस्वती गच्छ की भूमिका में भी स्पष्ट रूप से वीर निर्वाण ४७० वर्ष बाद विक्रम का जन्म होना लिखा है, यथा-बहुरि श्री वीर स्वामी को मुक्ति गये पीछे च्यारसंसत्तर ४७० बर्ष गये पीछे श्री सन्महाराज विक्रम राजा का जन्म भया ।
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