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प्रायः व्यस्त रहते थे। इसी कारण म० बुद्ध ने इन साधनों को इस रोग से छुड़ाकर आत्म स्थिति को प्राप्त कराने के लिए सैद्धान्तिक विवेचन का सर्वथा विरोध किया। विरोध होनही प्रत्युत उसको आत्मोन्नति के मार्ग में अर्गला स्वरूप घोषित किया । यह बतलाया कि वाद-विवाद में प्रात्म शुद्धि नहीं है। स्पष्ट कहा :
'या उन्नतीसास्स विधातभूमि, मानातिमानम वदते पनयेसो।
एतमपि दिसवान बिवादयेथ, नहि तेन सुद्धिम् कुसलवदंति ।।५३०॥ सुत्तनिपात भावार्थ---जो वाद एक समय वादी के हर्ष का कारण है, वही उसके परास्त होने का स्थल होगा, इस पर भी वह मान और घमण्ड के प्रावेश में बाद करता है। इसको देखते हुए, किसी को भी बाद नहीं करना चाहिए, क्योंकि कुशल पुरुष कहते हैं कि इसके द्वारा शुद्धि नहीं होती। इस प्रकार मुख्यतः उस समय की परिस्थिति को लक्ष्य करके उन्होंने सैद्धान्तिक वाद विवाद को अनावश्यक बतलाया, परन्तु उस समय के शास्त्रीय वातावरण को वह एकदम पलट न सके । आखिर स्वयं उनको भी सैद्धान्तिक बातों का प्रतिपादन गौण रूप में करना ही पड़ा, यह हम अगाड़ी देखेगे, किन्तु यह स्पष्ट है कि म० बुद्ध का उद्देश्य सामयिक परिस्थति को सुधार कर लोगों को जाहिरा शान्तिमय जीवन व्यतीत करने का मार्ग सुझाना था । उनका सांसरिक जीवन सुविधामय साधु जीवन हो, यही उनको इष्ट था। सांसारिक बन्धनों में पड़े हुए लोगों को गृहस्थी में से निकाल कर इस मार्ग पर लगाना ही उनका ध्येय था । वह येनकेन प्रकारेण मनुष्यों के वर्तमान जीवन को सुविधापूर्ण सुखमय देखना चाहते थे। थेरगाथा की भूमिका में यही कहा गया है कि 'ये बौद्ध भिक्षु सामयिक सुधार के लिए कटिबद्ध थे। वे जनता को धर्म, प्रेम, सादा जीवन व्यतीत करने, यज्ञ सम्बन्धी हिसा से दूर रहने और जाति-पाति के बन्धनों की उपेक्षा करने के उपदेश देते थे। इस तरह म० बुद्ध ने जिस धर्म की नींव डाली थी, वह वस्तुतः प्रारम्भ में एक सामयिक सुधार की लहर ही थी।
वास्तव में ग० बुद्ध का 'मध्य मार्ग' जिसका प्रतिपादन उन्होंने सर्व प्रथम बनारस में किया था। इस तरह से हिन्दुओं की जाति व्यवस्था और नियों की कठिन तपश्चर्या के विरोध के सिवा और कुछ न था । कम से कम प्रारम्भ में तो वह एक सैद्धान्तिक धर्म नहीं था 1 इसकी घोषणा निम्न रूप में म० बुद्ध ने स्वयं की थी:
___ हे भिक्षुषों, दो ऐसी अति हैं जिनसे गहत्यागियों को बचना चाहिए । यह दो अति क्या हैं ? एक प्रामोद-प्रमोदमय जीवन, यह जीवन जो केवल इन्द्रियजनित सुख और वासना के लिए हो, वह नीच वनाने वाला है। इन्द्रियजनित, उपेक्षा के योग्य और लाभ रहित है और अन्य तपश्चरण जीबनमय है, यह पीड़ामय उपेक्षा के योग्य और लाभ रहित है। इन दोनों अति से बचने पर हे भिक्षुओं, तथागत को 'मध्यमार्ग' का ज्ञान प्राप्त हुन्मा है, जो बद्धि, ज्ञान, शान्ति, सम्बोधि और निर्वाण का कारण है।'
इस कथन से स्पष्ट है कि मः बद्ध ने उस समय प्रचलित मतमतान्तरों में स्वयं माध्यमिक बन कर एक मझोला माध्यम का मत स्थापित किया था। इसमें उनका पूर्ण लक्ष्य अपने लिए एवं उन सबके लिए, जो उनके मत को मानने के लिये तैयार थे, किसी रीति से भी पीड़ा का यन्त कर देना था। इसलिए यथार्थ में 'मध्यमार्ग' एक ओर तो कर्मयोग के रूप में पचलित अनियमित सांसारिक साधु जीवन के, जिसमें सब ही सांसारिक कार्य बिना फल प्राप्ति की इच्छा के लिए किये जाते थे, और दूसरी पोर तपश्चरण के मध्य एक 'राजीनामा' था।
यह भाबित होता है कि म० बद्ध ने अपने मत के सिद्धान्तों की प्रार्षता और वैज्ञानिकता की ओर ध्यान ही नहीं दिया। उन्होंने सैद्धान्तिक विवेचन में पड़ने को एक झंझट समझा । बस उनका ध्येय एक मात्र वर्तमान जीवन को पीड़ा के दारुण क्रन्दन से लोगों को हटाने का था । इसीलिए उन्होंने तपश्चरण को भी एक पोडोत्पादक अति समझा, और कहा कि :-दुःख बुरा है और उससे बचना चाहिए । अति दुःख है। तप एक प्रकार की अति है, और दुःखपूर्वक है। उसके सहन करने में भी कोई लाभ नहीं है । वह फलहीन है।
किन्तु म बुद्ध ने तपश्चरण किस अनियमित ढंग से किया था, वह हम देख चुके हैं। वह श्रावक की आवश्यक क्रियाओं का अभ्यास किये बिना ही साधु जीवन में कमाल हासिल करना चाहते थे। प्रायों के उत्कृष्ट ज्ञान की तीव्र आकांक्षा रखकरउसको पाने का निदान वांधकर वह तपश्चरण पूर्ण कार्यकारी नहीं हो सकता था। पर्वत की शिखर पर पहुँचने के लिये सीढ़ियों की मावश्यकता है और फिर जब संतोषपूर्वक उन सीढ़ियों का सहारा लिया जायेगा तब ही मनुष्य शिखर पर पहुँच