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मध्य के (काशो, कौशल, कौशल्य, कुसन्ध्य, अश्वष्ट, त्रिगर्तपंचाल, भद्रकार, पाटच्चार, मौक, मत्स्य, कनीय, सूरसेन, एवं वृकार्थक) समुद्र तट के (कलिग, कुरुजांगल, कैकेय, प्रात्रेय, कांबोज, बाल्होक, यवनति, सिंधु, गांधार, मौवोर, सूर, भोरू, दशेरुक, बाडवान, भारद्वाज और क्वाथतोय) और उत्तर दिशा के (ताण, कार्ण, प्रच्छल आदि) देशों में विहार कर उन्हें धर्म को प्रोर ऋजु किया था। महावीर पुराण के अनुसार विदेह में (वज्जियन राजसंघ के) राजा चेटक ने भगवान के चरणों का आथय लिया था। अंगदेश के शासक कुणिक ने भी भगवान को बिनय की थी और वह कौशाम्बी तक भगवान के साथ-साथ गया था। कौशाम्बी में वहां के नृपति शतानोक ने भी भगवान को उपासना को था और वह अन्त में भगवान के अनन्य भक्त थे और इन्हीं की राजधानी राजगह में भगवान ने अधिक समय व्यतीत किया था। राजपुर के सुरमलय उद्यान में जिस समय भगवान विराजमान थे, उस समय वहाँ के राजा जीबंधर ने दीक्षा ग्रहण की थी । तथापि जिस समय भगवान सर्वप्रथम राजगृह में पाये ये, उस समय वेदपारंगत विद्वान इन्द्रभूति गौतम उनके साथ थे। इनके अतिरिक्त और बहुत से ब्राह्मण और क्षत्री राजपुत्र तथा वणिक सेठ ग्रादि भगवान के बिहार और धर्म प्रचार से प्रबुद्ध हए थे। राजकुमार, अभय शतवाहन प्रादि मुनि धर्म में लीन हए धे । ज्येष्ठा, चन्दना सदृश राजकुमारियां भी आर्यिकाएँ हुई थीं। राजगृह के सेठ शालिभद्र, धन्यकुमार प्रीतंकर आदि महानुभाव वणिकों में से परम पुरुषार्थ के अभ्यासो हुए थे। अन्त में धर्म प्रचार करते हुए भगवान पावापुर पहुंचे थे और वहां से उन्होंने मोक्ष लाभ किया था।
नोट-कुछ लोगों का ख्याल है कि भगवान महावीर का धर्म भारत में सीमित रहा था, परन्तु यह उनका कोरा ख्याल ही है। अन्वेषकों ने बतला दिया है कि जैन मुनि युनान, रूस और नार्वे जैसे सूदूर देशों में धर्म प्रचार के लिए गए थे। (देखी भगवान महावीर पृष्ठ ७) अफ्रीका के प्रबेसिनिया प्रदेश में यूनानियों को जैन मुनि मिने थे । एशियाटिक रिसचेंज भाग ३ यूनान में आजतक एक जैन मुनि का समाधिस्थान वहां को राजधानी अथेन्स में मौजूद है। यह जैन मुनि श्रममाचार्य नामक थे और भगुकच्छ से गये थे। मध्य एशिया में भी जैन भारी फैला दया था, यह भी प्रकट है। इण्डोचाइना में भी जैन धर्म के अस्तित्व के चिन्ह मिलते हैं। वहाँ के सन ११५ के एक शिलालेख में राजा भद्रवमन तृतीय को जिनेन्द्र के सागर का एक मीन लिखा है तथा जैनाचार्यकृत काशिकावृत्ति व्याकरण का उसे पारगामो बताया है । तथापि जावा से एक ऐसो मूर्ति के दर्शन वि० वा. चम्पतराय जी ने बरलिन के अजायब घर में किए हैं, जो जैन मूर्तियों के समान है । अतएव इन थोड़े से उदाहरणों से स्पष्ट है कि जैन धर्म भारत में ही सीमित नहीं रहा था। बौद्ध धर्म की तरह वह भी एक समय विदेशों में फैला था ।
इस प्रकार दिगम्बर और श्वेताम्बर दोनों ही इस बात को प्रगट करते हैं कि भगवान महावीर को मोक्ष प्राप्ति का स्थान पावा है । यह नगरी धनसम्पदा में भरपूर मल्ल राजाओं की राजधानी थी। यहां के लोग और राजा हस्तिपाल भगवान महीवीर के शुभागमन की बाट जोह रहे थे। इसलिए म. बुद्ध को अन्तिम समय के बरमक्स भगवान महावीर को कोई खबर कहीं को नहीं भेजनी पड़ी थी। वस्तुतः भगवान कृतकृत्य हो चुके थे, इच्छा और बाँछा से परे पहुंच चुके थे इसलिये उनके विषय में ऐसी बातें बिल्कुल सम्भव नहीं थी। श्रीगुणभद्राचार्य जी भगवान के अन्तिम दिव्य जीवन काल का वर्णन निम्न प्रकार करते हैं :
मा पावापुर प्राप्य मनोहरवनांतरे । बहूनां सरसां मध्ये महामणिशिलातले ॥५०६।। स्थित्वा दिनद्वयं वीतविहारो वृद्धनिर्जरः । कृष्णकार्तिकपक्षस्य चतुर्दश्यां निशात्यये ॥५१०१॥ स्वातियोगे तृतीयेद्धशुक्लध्यामपरायणः । कृतत्रियोगसंरोधसमुच्छन्नक्रियां श्रित: ॥५११।। हताधातिचतुष्कः सन्नशरीरो गुणात्मकः ।
गता मुनिसहस्त्रेण निर्वाणं सर्ववाछितं ॥५२२॥ भावार्थ-विहार करते करते अन्त में वे (भगवान) पावापुर नगर में पहुंचे और वहां के मनोहर नाम के वन में अनेक सरोवरों के मध्य महामणियों की शिला पर विराजमान हए। विहार छोड़कर (योगनिरोधकर) निर्जरा को बढ़ाते हए वे दो दिन तक वहां विराजमान रहे और फिर कार्तिक कृष्णा चतुर्दशी की रात्रि के अन्तिम समय में स्वाति नक्षत्र में तीसरे शुक्लध्यान
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