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इन कठिनाइयों के सहन करने वाले नागवार मार्ग से मैं उस बनोगे और उत्कृष्टपूर्ण मायों के ज्ञान को, जो मनुष्य की बुद्धि के बाहर है, प्राप्त कर पाऊँगा क्या सम्भव नहीं है कि उसके प्राप्त करने का कोई अन्य मार्ग हो ?"
इसके साथ ही उन्होंने शरीर का पोषण करना पुनः प्रारम्भ कर दिया, परन्तु इस दशा में भी उनका श्रद्धान आयों के उत्कृष्ट एवं विशिष्ट ज्ञान में तनिक भी कम न हुआ। उनको उस उत्कृष्ट ज्ञान के पाने की लालसा अब भी रही और वह उसको अन्य सुगम उपायों द्वारा प्राप्त करने के प्रयत्न में संलग्न हो गये किन्तु इतना दृढ़ थज्ञान भ० बुद्ध को जो श्रात्मा के उत्कृष्ट ज्ञान की शक्ति में हुआ, सो कुछ कम आश्चर्यपूर्ण नहीं है। अवश्य ही इतना दृढ़ श्रद्धान इस उत्कृष्ट ज्ञान में उसी अवस्था में हो सकता है जब उसके साक्षात् दर्शन उस श्रद्धानी की हो गये हों अतएव इसमें संशय नहीं कि म० बुद्ध ने अवश्य ही भगवान पार्श्वनाथ के तीर्थ के किसी केवल ज्ञानी ऋषिराज के दर्शन किये होंगे। इसी कारण उनका इतना दृढ़
श्रद्धान था।
म० बुद्ध अपने इस दृढ श्रद्धान के अनुरूप में अन्य सुगम रीति से इस उपाये ज्ञान की प्राप्त करने में संलग्न थे। इतनी कठिन तप जो उन्होंने की थी वह वृथा ही जाने वाली न थी। परिणामतः उनको बोधि वृक्ष के निकट उस मार्ग के दर्शन हो गये, जिसकी वे खोज में थे। बौद्ध शास्त्रों का कथन है कि इस अवसर पर उनको पूर्ण ज्ञान की प्राप्ति हुई थी और वे तथागत हो गये थे । बौद्धों के इस कथन में कितना तथ्य है यह हम उन्हीं के शास्त्रों से देखेंगे |
म बुद्ध तथागत हो गये, परन्तु इस अवस्था में भी वे उन सब प्रश्नों का उत्तर नहीं देते थे, को सैद्धान्तिक विवेचन में सर्वप्रथम अगाडी माते हैं और सामान्य लोगों को एक गोरखधंधा सा समझ पड़ते हैं। अतएव इन बातों को प्यान में रखते हुए हम सहसा बौद्धों की उक्त मान्यता को स्वीकार नहीं कर सकते। म० बुद्ध को बोधिवृक्ष के नीचे किसी प्रकार के उच्चज्ञान के दर्शन अवश्य हुए थे, परन्तु क्या वह पूर्ण ज्ञान (केवल ज्ञान ) था, यह विचारणीय है। इसके लिए हम स्वयं कुछ न कहकर केवल बौद्धों के मान्य और प्राचीन ग्रन्थ मिलिन्द पन्ह के शब्द ही उपस्थित करेंगे। यहां ग० बुद्ध के पूर्णज्ञान (केवल ज्ञान या सर्वशता के विषय में पूछे जाने पर बौद्धाचार्य कहते हैं
"वह ज्ञान की दृष्टि उनके निकट हर समय नहीं रहती थी। भगवत् की सर्वज्ञता विचार करने पर अवलम्बित वो और जब वह विचार करते थे तो वह उस बात को जान लेते थे, जिसको वह जानना चाहते थे ।"
इस पर प्रश्नकर्ता राजा मिलिन्द उनसे कहते हैं कि
"इस देश में जब कि विचार करने से बुद्ध किसी बात को जानते थे तो वह सर्वज्ञ नहीं हो सकते ?"
बौद्धाचार्य राजा के इस कथन को किन्हीं ग्रंथों में स्वीकार करते हुए कहते हैं
"यदि ऐसे ही है, सम्राट् ? तो हमारे बुद्ध का ज्ञान अन्य बुद्धों के ज्ञान की अपेक्षा सूक्ष्मता में कम होगा और इसका निश्चय लगाना कठिन है।"
वृक्ष
बौद्ध शास्त्र के इस कथन से यह स्पष्ट प्रकट है कि पूर्णज्ञान सर्वव्यापक और उसके अधिकार में सर्वथा सदा रहना चाहिए। जैन शास्त्रों में सर्वज्ञता की यही व्याख्या की गई है। इस दशा में यह सहसा नहीं कहा जा सकता कि म० बुद्ध को बोधि के निकट "सर्वज्ञता" की प्राप्ति हुई थी। जिस प्रकार सर्वज्ञता की व्याख्या उक्त बौद्ध ग्रन्थ में की गई है उस प्रकार बुद्ध का ज्ञान प्रकट नहीं होता। इसी हतु से हम इतना कहने का साहस कर रहे हैं, वरन् वृथा ही किसी की मान्यता को अस्वीकार करने की धृष्टता नहीं की जाती। तिस पर यह व्याख्या केवल उक्त बौद्ध ग्रन्थ पर ही अवलम्बित नहीं है प्रत्युत म० बुद्ध ने स्वयं इस बात को स्पष्टतः स्वीकार नहीं किया है। जब उनसे सर्वशता के विषय में प्राण हुआ तो उन्होंने टालने की ही कोशिश की थी। एक बार राजा पसेनदी ने उनसे पूछा कि
"अर्हतो ( सर्वज्ञों) में कौन सर्व प्रथम है ?"
बुद्ध ने कहा कि "तुम गृहस्थ हो, तुम्हें इन्द्रिय सुख में ही आनन्द श्राता है । तुम्हारे लिए संभव नहीं है कि तुम इस प्रश्न को समझ सको ।"
इस तरह यह प्रत्यक्ष प्रकट है कि योधिवृक्ष के निकट जिस दिव्य ज्ञान के दर्शन म० बुद्ध को हुए ये वह पूर्णजान श्रथवा सर्वज्ञता नहीं थी, प्रत्युत उससे कुछ हेय प्रकार का वह ज्ञान था। जैन दृष्टि से उसे हम अवधिज्ञान (विभंगाबधि ) कह सकते हैं। पेरीगाथा की भूमिका में बौद्धाचार्य म० बुद्ध की इस ज्ञान प्राप्ति के विषय में कहते हैं कि इस समय रात के
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