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भगवान महावीर के विषय में जब हम विचार करते हैं तो देखते हैं कि उनका साधु जीवन म० बुद्ध के विपरीत एक निश्चित और सुव्यवस्थित जीवन था। जैन शास्त्रों के अध्ययन से हमको ज्ञात होता है कि भगवान महावीर बाल्यावस्था से ही श्रावक के ब्रतों का अभ्यास करते हुए अपने पिता के राज्यकार्य में सहायक बन रहे थे। वे इस गृहस्थावस्था से ही संयम का विशेष रीति से अभ्यास करते रहे थे। एक दिवस ऐसे ही विचारमग्न थे कि सहसा उनको अपने पूर्व भव' का स्मरण हो पाया। और प्रात्मज्ञान प्रगट हा। उन्होंने विचारा कि स्वर्गों के अपूर्व विषय सुखों मे मेरी कुछ तृप्ति नहीं हुई तो यह सांसारिक क्षणिक इन्द्रियविषयसुख किस तरह मुझे सुखी बना सकते हैं? हां ! वृथा ही मैंने यह अपने तीस वर्ष गवां दिये । मनुष्य जन्म अति दुर्लभ है, उसको वृथा गंवा देना उचित नहीं। यही बात उत्तरपूराण में इस प्रकार कही गई है:
त्रिशंन्छरभिस्तस्यैव कौमारमगमद्वयः । ततोन्या मतिज्ञानक्षयोपशमभेदतः ।।२६६।। समुत्पन्न महाबोधिः स्मतपूर्वभवांतरः । लोकांतिकामरैः प्राप्य प्रस्तुतस्तुतिभिः स्तुतः ।।२६७।। सकलामरसंदोहकृतानिःक्रमण क्रियः ।
स्त्रवाक्प्रीणितसबंधुसंभावितविसर्जनः ॥२६॥ अर्थात-इस प्रकार भगवान के कुमार काल के तीस वर्ष व्यतीत हए । उसके दूसरे ही दिन मतिज्ञान के विशेष क्षयोपशम से उन्हें प्रात्मज्ञान प्रगट हा प्रौर पहिले भव का जातिस्मरण हा। उसी समय लोकांतिक देवों ने पाकर समयानुसार उनकी स्तुति की और इन्द्रादि सब देवों ने पाकर उनके दीक्षा कल्याण का उत्सव मनाया। भगवान ने मीठो वाणी से सब भाईबन्धुओं को प्रसन्न किया और सबसे विदा ली।
इस तरह सबको सन्तुष्ट करके दे भगवान अपनी चन्द्रप्रभा पालकी पर मारूढ़ होकर वनषंड नामक वन में पहुंचे। वहां पर आपने अपने सब वस्त्राभूषण आदि उत्तार कर वितरण कर दिये और सिद्धों को नमस्कार करके उत्तराभिमुख हो पंचमुष्टि लोचकर परम उपासनीय निग्रंथ मुनि हो गये । यह अगहन वदी दशमी का शुभ दिवस था, वास्तव में संसार का कल्याण जिसके निमित्त से होना अनिवार्य था और जिसके भवितव्य में त्रिलोकवन्दनीय होमा अंकित था, उसको प्रत्येक जीबन क्रिया इतनी स्पष्ट और प्रभावशाली हो तो कोई अाश्चर्य नहीं । भगवान महावीर ऐसे ही एक परमोत्कृष्ट महापुरुष थे। वे अपने इस जीवन में ही अनुपम जीवित परमात्मा हुए थे यही हम अगाडी देखेंगे।
भगवान महावीर ने निर्ग्रन्थ मुनि की दिगम्बरीय ( नग्न ) दीक्षा ग्रहण की थी, यह दिगम्बर शास्त्र प्रगट करते हैं, परन्तु श्वेताम्बर सम्प्रदाय के शास्त्र इससे सहमत नहीं हैं। उनका कथन है कि भगवान ने दीक्षा समय से एक वर्ष और काल महीम उपरान्त तक देवदृष्य वस्त्र धारण किये थे, पश्चात् वे नग्न हो गये थे । देवदूष्य वस्त्र को व्याख्या में कुछ भी स्पष्ट रीति से नहीं बतलाया गया है कि इसका यथार्थभाव क्या है ? इतना स्पष्ट किया है कि इस बस्त्र को पहिने हुए भी भगवान नग्न प्रतीत होते हैं। श्वेताम्बरियों के कथन से एक निष्पक्ष व्यक्ति सहसा उनके कथन पर विश्वास नहीं कर सकता। देवदुष्य वस्त्र पहिने हुए भी वे नग्न दिखते थे, इसका स्पष्ट अर्थ यही है कि वे नग्न थे।
यदि हम श्वेताम्बर आगम ग्रन्थों पर इस सम्बन्ध में एक गम्भीर दृष्टि डालें तो उनमें भी हमें नग्नावस्था की विशिष्टता मिल जाती है । अचेलक-नग्न अवस्था को उनके प्राचारांगसूत्र में सर्वोत्कृष्ट बतलाया है। उसमें लिखा है कि उपवास करते हुए नग्न मुनि को जो पुद्गल का सामना करता है, लोग गाली भी देंगे, मारेंगे और उपसर्ग करेंगे और उसकी संसार अवस्था की क्रियाओं को कहकर चिढ़ायेंगे और असत्य साक्षेप करेंगे, इन सब उपसर्गों के कार्यों को चाहे वे प्रियकर हों या अप्रियकर हों, पूर्व कमों का फल जानकर, उसे शांति से सन्तोषपूर्वक विचारना चाहिए । सर्व सांसारिकता को त्यागकर सम्यक्ष्टि रखते हए सब अप्रिय भावनायें सहन करना चाहिए। वही नग्न हैं और सांसारिक अवस्था को धारण नहीं करते, प्रत्युत धर्म पर चलते हैं। यही सर्वोत्कृष्ट किया है । इसके उपरान्त इसी सूत्र में इसकी प्रशंसा करके कहा है कि नीर्थकरों ने भी इस नग्न वेष को धारण किया था। ऐसी अवस्था में स्पष्ट है कि न केवल भगवान महावीर और ऋषभदेव ने ही इस नग्नावस्था को धारण किया था, प्रत्युत प्रत्येक तीर्थकर ने अपने मुनि जीवन में इस परीषह को सहन किया था।
बास्तब में श्वे० ग्रन्थों में भी जैन मुनियों का प्रायः वैसा ही मार्ग निर्दिष्ट किया गया है जैसा दि० शास्त्रों में बतलाया गया है। यदि उसमें अन्तर है तो वह उपरान्त टीकाकारों के प्रयत्नों का फल है उनके इसी प्राचारोंग सूत्र में सर्वोत्कृष्ट नग्न