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भगवान महावीर के विषय में भी हमें ज्ञात है कि वे अपनी कौमारावस्था में राजकुमारों मन्त्री पुत्र पोर देवसहचरों के साथ अनेक प्रकार की क्रीड़ायें करते थे। स्वाधीन क्षत्रिय कुल में परमोच्च पदवी को प्राप्त करने के लिए जन्म लेकर उन्होंने अपने बाल्य जीवन से ही महिसा त्याग और शव का पद लोगों के समक्ष रखा या आठ वर्ष की नन्हीं सी अवस्था में ही उन्होंने जानबूझकर किसी के प्राणों को पीड़ा न पहुंचाने का संकल्प कर लिया था दृढ़ निश्चय कर लिया था कि किसी दशा में भी जानबुझकर प्राणि हिंसा नहीं करूंगा और सदैव सत्य का ही अभ्यास करूंगा। पराई वस्तु ग्रहण करके वे किसो को मानसिक दुःख नहीं पहुंचाते थे। पूर्ण ब्रह्मचर्य का पालन करते हुए, वे विलासिता रूप में श्रावश्यक सामग्री को रखते ये शौक के लिए आवश्यक वस्तुओं के ढेर एकत्रित नहीं करते थे। ऐसा ममय जीवन व्यतीत करते हुए वे वीर भेष में कुमारकालीन कीड़ायें करी विचरते थे एक दिवस राज्योद्यान में वे अपने अन्य सहचरों सहित कोड़ा कर रहे थे कि एक ओर से विकराल सर्प उन पर आ धमका। विचारे अन्य सखा भयभीत होकर इधर-उधर भाग निकले, परन्तु भगवान महावीर जरा भी भयभीत नहीं हुए। उन्होंने बात की बात में उस विषधर को वश में कर लिया और उस पर दया करके उसे बेसा हो छोड़ दिया। वास्तव में यह स्वर्गलोक का एक देव था, जो भगवान के दयालुचित्त और अपूर्व बलशाली शरीर की प्रसिद्धि सुनकर इनकी परीक्षा लेने खाया था। इस तरह भगवान की परीक्षा करके यह विशेष हर्षित हुआ और भगवान की वदना करके अपने स्थान को चला गया। भगवान का यह बाल्यावस्था का चरित्र हमारे लिए एक अत्युतम अनुकरणीय माद है.
कुमार काल में दोनों ही युग प्रधान पुरुषों ने किसी प्रकार की शिक्षा ग्रहण की यह ज्ञात नहीं है। भगवान महावीर के विषय में जैन शास्त्रों में कहा गया है कि वह जन्म से ही मति, श्रुति और अवधि ज्ञान से संयुक्त थे। इस अपेक्षा उनका ज्ञान बाल्यावस्था से ही विशिष्ट था। इसमें संभव नहीं कि उस समय जो शिक्षाएं घोर कलायें प्रचलित थीं, उनमें ये दोनों युग प्रधान पुरुष पारंगत थे। साथ ही इन दोनों का शारीरिक बल और सौन्दर्य भी अपनी सानी का निराला था । म० बुद्ध के विषय में कहा गया है वे जन्म से ही महापुरुष के बत्तीस लक्षणों से संयुक्त सुन्दर शरीर के धारी थे। भगवान महावीर के विषय में भी हमें विदित है कि वे एक हजार माउ लक्षणों कर चिह्नित थे और उनके शरीर को आकृति और शोभा अपूर्व थी। उन्होंने अपने पूर्व जन्मों में इतना विशेषग्य उपार्जन किया था कि उनका शरीर बिल्कुल विशुद्ध, मलमूत्र आदि को बाधाओं से रहित था । प्रत्युत उनके शरीर से हर समय एक अच्छो सुगन्ध निकलती रहती थी। उनके शरीर का रुधिर दुग्धवत था । उनका पराक्रम अतुल वा और शरीर में क्षति पहुंचाना असंभव था। म० बुद्ध धौर म महावीर सदैव मिष्ट भाषण करते थे, यह भी दोनों सम्प्रदायों के शास्त्रों से जात है ।
इस प्रकार जब वे सुन्दर शुभग शरीर के धारी राजकुमार बुवावस्था को प्राप्त हुये तो उनके माता-पिता को उनके पाणिग्रहण कराने की शुष भाई राजा सुद्धोदन अपने पुत्र का विवाह करा देने में बड़े पन थे, क्योंकि उन्हें भय था कि कहीं वराग्य उनके पुत्र के कोमल हृदय पर अपना प्रभाव न जमा ले तदनुसार म बुद्ध का शुभ विवाह यशोदा नाम की एक राज कन्या से हो गया और यह दाम्पत्य सुख का उपभोग करने लगे। इन्ही यशोदा के गर्भ धीर म बुद्ध के औरस से राहुल नाम के पुत्र का जन्म हुआ था भगवान महावोर के माता-पिता को भी उनकी युवावस्था निहार कर विवाह करा देने की योजना करनी पड़ी थी। देशदेशांतरों के राजागण अपनी कम्मों को भगवान के साथ परवाना चाहते थे। इनमें प्रस्थात राजा जितशत्रु अपनी करया अदा को विशेष रीति और बाग्रह से भगवान को समर्पण करना चाहते थे, परन्तु विशिष्ट ज्ञानी त्याग की प्रत्यक्ष मूर्ति भगवान महावीर को यह रमणीरत्न भी न मोह सड़ा ? उन्होने संसार के कल्याण के लिए अपने सर्वस्य का त्याग करना ही परमावश्यक समझा। माता-पिता ने बहुत समझाया परन्तु वैराग्य का हो गाड़ा रंग जिसके हृदय पर चढ़ गया हो, फिर वे उतारे नहीं उतरता भगवान महावीर ने विवाह करना स्वीकार किया। उन्होंने उस समय के राजोन्मत युवा राजकुमारों और जीविकों तथा ब्राह्मण ऋषियों जैसे साधुषों को मानी पूर्ण ब्रह्मचर्य का महत्व हृदयगम कराया जहां ऋषिगण भी इन्द्रिय निग्रह और संयम से विमुख हों वहां ऐसे आदर्श की परमावश्यकता थी। भगवान महावीर के दिव्य चरित्र में जनता को इस भाव के दर्शन हो गये। आज के समंजसमय बीभत्स वातावरण ने प्रत्येक देश के समक्ष ऐसा बादर्श उपस्थित करना परमावश्यक है। जिस पवित्र भारतवर्ष में भगवान महावीर के दिव्य प्रखण्ड ब्रह्मचर्य का अनुपम मादर्श उपस्थित रहा था, वहीं बाज वहाव का प्रायः सर्वथा प्रभाव देखकर हृदय पर्रा जाता है। भारतवर्ष के लिए भगवान महावीर का आदर्श परम शिक्षापूर्ण और हितकारी है।
इस प्रकार दोनों युग प्रधान पुरुष अपने गृहस्थ जीवन में सानन्दकाल यापन कर रहे मे भगवान महावीर ने अपने गृहस्थ जीवन से ही संयम और त्याग का अभ्यास करना प्रारम्भ कर दिया था और म० युद्ध नियमित ढंग से दाम्पत्य सुख का उपभोग कर रहे थे।
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