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प्रकट है कि उस समय जनधर्म काफी उन्नत रूप में था। वराहमिहिर ने जनों के उपास्यदेवता की मूर्ति नग्न बनती लिखी है, से यह स्पष्ट है कि उस समय उज्जैनी में दिगम्बर धर्म महत्वशाली था। जनसाहित्य से प्रकट है कि उज्जनी के निकट भदंदलपुर (बीसनगर) में उस समय दिगम्बर मुनियों का संघ मौजूद या, जिसके प्राचार्यों की कालानुसार नामावली निम्नप्रकार है:१. श्री मुनि बचनन्दी
रान् ३०७ में प्राचार्य हुये २. , , कुमारनन्दी
३२६ . " , लोकचन्द्रप्रथम ४., प्रभाचन्द्र ५. नेमिचन्द्र
"" भानुनन्दि ॥ जयनन्दि
४५१ ८. , , वसुनन्दि
,,, वीरनन्दि ,, रत्ननन्दि
सन् ५०४ में आचार्य हुये। , , माणिक्यनन्दि
,,, मेघचन्द्र १३., , शानिकीति १४.,,, मेरुकीति
५८५ में प्राचार्य हये' इनके बाद जो दिगम्बर जैनाचार्य हये, उन्होंने भइल पर मालबा) से हटाकर जैनसंघ का केन्द्र उज्जन में बना दिया। इससे भी स्पष्ट है कि चन्द्रगुप्त विक्रमादित्य के निकट जैन धर्म को प्राश्रय मिला था। उसी समय चीनी-यात्री फाह्यान भारत में आया था। उसने मथुरा के उपरान्त मध्यदेश में ९६ पाखण्डों का प्रचार लिखा है। वह कहता है कि "वे सब लोक और परलोक मानते हैं। उनके साधु-संघ हैं, वे भिक्षा करते हैं, केवल भिक्षापात्र नहीं रखते। सत्र नानारूप से धर्मानुष्ठान करते हैं।" दिगंबर मुनियों के पास भिक्षा पात्र नहीं होता-वे पाणिपात्र भोजी और उनके संघ होते हैं। तथा वे अहिंसा धर्म का उपदेश मुख्यता से देते हैं। फाह्यान भी कहता है कि "सारे देश में सिवाय चाण्डाल के कोई अधिवासी न जीबहिसा करता है, न मद्य पीता है और न लहसुन खाता है। न कहीं सुनागार मोर मब की दुकानें है।" उसके इस कथन से भी जैनमान्यता का समर्थन होता है। भद्दलपुर, उज्जैनी आदि मध्यदेशवतीं नगरों में दिगम्बर जैन मुनियों के संघ मौजूद थे और उनके द्वारा अहिंसा धर्म की उन्नति होती थी।
फाह्यान संकाश्य, श्रावस्ती, राजगृह आदि नगरों में भी निन्य साधुनों का अस्तित्व प्रगट करता है । संकाश्य उस समय जैन-तीर्थ माना जाता था। संभवत: वह भगवान विमल नाथ तीर्थकर का केवलज्ञान स्थान है। दो-तीन वर्ष हुये वहीं निकट से एक नग्न जैनमुर्ति निकली थी और वह गुप्तकाल की अनुमान की गई है। इस तीर्थ के सम्बन्ध में निर्ग्रन्थों और बौद्ध भिक्षयों में बाद हुआ वह लिखता है। श्रावस्ती में भी बौद्धों ने निर्ग्रन्थों से विवाद किया वह बताता है। श्रावस्ती में उस समय सहध्वज वंश के जन राजा राज्य करते थे। कुहाऊं (गोरखपुर) से जो स्कन्दगुप्त के शिजकाल का जैन लेख मिला है।' उससे स्पष्ट है कि इस ओर अवश्य ही दिगम्बर जैनधर्म उन्नतावस्था पर था।
१. पट्टावली जहि. भाग ६ अक ७-८ पृष्ठ २६.३० ब IA xx 351-352 २. IA, xx, 352. ३. फाह्यान, गृष्ठ ४६ । ४. फाह्यान, पृष्ठ ३१ ५. HQ. Vol. V. P. 142 ६. फाह्यान, पृष्ठ ३५-३६ ७, फाह्यान, पृष्ट ४५.४५ ८. संप्रास्मा० पृष्ठ ६५ ६. भाप्रारा० भा०२ पृष्ट २८६
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