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अशीमहिवय भिक्षामाशा वासोवसीमहि।।
शयी महि मही पृष्ठे कुर्वीमहि किमीश्वरैः ।।१०।। अर्थात-"अब हम भिक्षा हो करके भोजन करेंगे, दिशा ही के वस्त्र धारण करेगे अर्थात् नग्न रहेंगे और भूमि पर ही शयन करेंगे । फिर भला हमें धनवानों से क्या मतलब ?" इस प्रकार के दिगम्बर मुनि को कवि क्षमादि गुणलीन अभय प्रकट करते हैं: --
धर्य यस्य पिता क्षमा च जननी शान्तिपिचरंगेहिदी। सत्य मित्र मिदं दया च भगिनी भ्रातामनः संयमः ।। शय्या भूमितल दिशोऽपि वसनं ज्ञानामृतं भोजन ।
ह्यते यस्यकुटंबिनो बद सखे कस्माद्भयं योगिनः ।।१८।। अर्थात ...-"धर्य जिसका पिता है. क्षमा जिसकी माता है, शान्ति जिसको स्त्री है, सत्य जिसका मित्र है, दया जिसकी बहिन है, संयम किया हुमा मन जिसका भाई है, भूमि जिसकी शय्या है, दशों दिशाय हो जिसके वस्त्र है और ज्ञानामत ही जिसका भोजन है-यह सब जिसके कुटुंबी हो भला उस योगी पुरुष को किसका भय हो सकता है ?"
'वैराग्यशतक' के उपरोक्त श्लोक स्पष्टतया दिगम्बर मुनियों को लक्ष्य करके लिखे गये हैं। इनमें वर्णित सब ही लक्षण जैन मुनियों में मिलते हैं।
'मुद्राराक्षस' नाटक में क्षपणक जीवसिद्धि का पार्ट दिगम्बर मुनि का द्योतक है । वहां जोवसिद्धि के मुख से कहलाया गया है कि
"सासणमलिहंताणं पडिवजह मोहवाहि वेज्जाणं ।
जेमुत्तमात्तकडु पच्छापत्थं मुपदिसन्ति ।।१८॥४॥" अर्थात-"मोहरूपी रोग के इलाज करने वाले अर्हतों के शासन को स्वीकार करो, जो महतं मात्र के लिए कड़वे हैं, किंतु पीछे से पथ्य का उपदेश देते हैं।" इस नाटक के पांचवें अंक में जीवसिद्धि कहता है कि
"अलहताणं पणमामि जेदेगंभीलदाए बुद्धीए ।
लोउत लेहि लोए सिद्धि मग्गेहि गच्छन्दिः ॥२॥ भावार्थ- "संसार में जो बुद्धि की गंभीरता से लोकातीत (अलौकिक मार्ग से मुक्ति को प्राप्त होते हैं, उन प्रहन्तों को मैं प्रणाम करता हूँ।"
'भूद्राराक्षस' के इस उल्लेख से नन्दकाल में क्षपणक-दिगम्बर मुनियों के निर्वाध बिहार और धर्म प्रचार का समर्थन होता है। जैसे कि पहले लिखा जा चुका है।
'वराहमिहिर संहिता' में भी दिगम्बर मुनियों का उल्लेख है। उन्हें वहां जिन भगवान का उपासक बताया है। वराहमिहिर के इस उल्लेख से उनके समय में दिगम्बर मुनियों का अस्तित्व प्रमाणित होता है। अर्हत् भगवान की मूर्ति को भी वह नग्न ही बताते हैं।
१. वेजै०, पृ०० ४७ २. वेज, पृ० ४७ ३. HDW.. p. १.. ४. वेज, पृ० ४०-४१ ५. "शाक्यान् सर्वहितस्य शान्ति मनसो नग्नान जिनानां विदुः" ।।१६।।६१।। ६. "जाजानु लम्बबाहुः श्रीवत्सांकः प्रशान्तमूर्तिश्च । दिग्यासास्तरुणो रुपवांश्च कार्योऽहंता देवः ।।४५।।१८।।
-वराहमिहिर संहिता।
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