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में होकर वह संघ माध्यप्रान्त होता हुमा श्री शिखिरजी फरवरी गन १९२७ में पहुंचा था । वहा पर बड़ा भारी जन सम्मेलन हुया था। शिखिर जो से बह संघ कटनी, जबलपुर, लखनऊ, कानपुर, झांसी, आगरा, धोलपुर, मथुरा, फीरोजाबाद, एटा, हाथरस, अलीगढ़, हस्तनापुर, मुजफ्फरनगर आदि शहरों में होता हुपा दिल्ली पहुंचा था। दिल्ली में वर्षा-यांग पूरा करके यह संघ अलवर की अोर विहार कर गया था और उसमें ये साधुगण मौजूद थे :
(१) श्री शान्ति सागरजी साचार्य (२) मुनि चन्द्रसागर (३) मुनि श्रुतसागर (४) मुनि वीरसागर (५) मुनि नमिसागर (६) मुनि ज्ञानसागर । इनके समय में ही प्राचार्य वीरसागर जो का संघ भी था ।
(२) दूसरा संघ श्री सूर्य सागर जी महाराज का था, जो अपनो सादगी और धार्मिकता के लिए प्रसिद्ध था । खुरई में इस संघ का चातुर्मास व्यतीत हुप्रा था । उस समय इस सघों मुनि सूर्य सागरजो के अतिरिक्त मुनि अजितसागर जी, मुनि धर्मसागर जी मोर ब्रह्मचारी भगवानदास जी थे । ख रई से इस संघका विहार उसो पार हो गया था। मुनि सूर्यसागरजी गहस्थ दशा में श्री हजारीलाल के नाम से प्रसिद्ध थे । वह पोरवाड जाति के कालरापाटन निवासी श्रावक थे । मुनि शान्तिसागरजी छाणी के उपदेश से निग्रन्थ साधु हुए थे।
(३) तीसरा संघ मुनि शान्तिसागर जी छाणी का था, जिसका एक चातुर्मास ईडर में हुआ था। तब इस संघ में मुनि मल्लिसागर जी, और न फतहसागर जी ब्र. लक्ष्मीचन्द जी थे । मुनि शान्निसागरजी एकान्त में ध्यान करने के कारण प्रसिद्ध थे । वह छाणी (उदैपुर) निवासी दशा-हमड़ जाति के रत्न थे। भादव शुक्ल १४ स. १६७६ को उन्होंने दिगम्बर-वेष धारण किया था । उन्होंने मुखिया (बांसवाड़ा) के ठाकुर क्रूरसिंह जी साहब को जैनधर्म में दीक्षित करके एक आदर्श कार्य किया था।
(४) मुनि आदिसागर जी के चौथे सघ ने उदगांव में वर्षा पूर्ण की थी। उस समय इनके साथ मुनि मल्लिसागर जी व क्षुल्लक सूरीसिंह जी थे।
(५) श्री मुनीन्द्रसागर जी का पांचवां संघ मांडवो (सूरत) में मौजूद रहा था। इनके साथ श्री देवेन्द्रसागर जी तथा विजयसागरजी थे। मुनीन्द्रसागर जी ललितपुर निवासी और परवार जाति के थे। उनकी आयु अधिक नहीं थी। वह श्री शिखिरजी प्रादि तीर्थों की वन्दना कर चुके थे।
(६) छठा संघ श्री मुनि पायसागरजी का था जो दक्षिण-भारत की ओर धर्म प्रचार कर रहा था।
इनके अतिरिक्त मुनि ज्ञानसागर जी (खैराबाद), मुनि आनन्दसागर जी आदि दिगम्बर-साधुगण एकान्त में ज्ञानध्यान का अभ्यास करते थे। दक्षिण भारत में उनकी संख्या अधिक थी। ये सब हो दिगम्बर मुनि अपने प्राकृत-वेष में सारे देश में विहार करके धर्म-प्रचार करते रहे हैं ! ब्रिटिश भारत और रियासतों में ये बेरोकटोक घूमते थे; किन्तु एक वर्ष काठियावाड़ के कमिश्नर ने अज्ञानता से मुनीन्द्रसागरजी के संघ पर कुछ प्रादमियों के घेरे में चलने को पाबन्दी लगा दी थी; जिसका विरोध अखिल भारतीय जैन समाज ने किया था और जिसको रद्द कराने के लिए एक कमेटी भी बनी थी।
सातवां संघ प्राचार्य जयकीर्ति जी का हुना, आप दक्षिण भारत के निवासी थे, तप ध्यान तथा चरित्र के परम साधक थे, आपकी शिष्य परम्परा में कुछेक मुनि राज बहुत ही धर्म प्रचार का तथा शिक्षा का प्रचार कर रहे हैं। जीवन के अन्त में अापने समाधि मरण धारण कर लिया था और धर्म ध्यानपूर्वक शरीर त्याग किया, आपके प्रधान शिष्य प्राचार्य रत्न देश भूषण जी मुनिराज हैं।
प्राचार्यरत्न श्री देशभूषण जी महाराज आपका जन्म मंगसिर सुदी २वि० सं० १९६० को ग्राम कोथलपुर, बेलगांव, मैसुर प्रान्त में एक जमींदार परिवार में हमा था 1 प्रापकी पूज्य माता जी का नाम श्री अक्काबती और पिता जी का नाम श्री सत्य गौड़ जी था, जन्म के समय ज्योतिषी ने भविष्य वाणी की थी कि बालक महान पुरुष होगा, आपका नाम बालगौड़ा रखा मया। तीन माह की अल्पायु में ही माता के वात्सल्य से वंचित हो गये, आपका-लालन पालन आपकी नानी ने किया, किन्तु अभी १२ साल को ही प्रायु हुई थी कि मापके सिर से पिता का साया भी उठ गया, कुछ दिन प्राप अपनी चुप्मा जी के पास और कुछ दिन काकाजी के पास रहे। बचपन से ही माप सच्चरित्र एवं मेधावी रहे । एक बार कोथलपुर में प्राचार्य पायसागर जी महाराज पधारे और उनके सदुपदेश से आपका मन त्याग की और अग्रसर हो गया।
गलतगा ग्राम में प्रापने प्राचार्य महाराज पायसागर जी से सप्त व्यसन का त्याग और अष्टमुल गुणों का नियम ग्रहण
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