Book Title: Bhagavana  Mahavira aur unka Tattvadarshan
Author(s): Deshbhushan Aacharya
Publisher: ZZZ Unknown

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Page 861
________________ आँखें खोलेगा अवश्य । और तब वे प्राचीन भारत की ओर प्राशाभरे नेत्रों से देखेंगे । इसलिए यहां पर प्राचीन और अर्वाचीन भारत की तुलना न करके हम उसकी ईसा से पूर्व छठी शताब्दी में जो दशा थी उसका ही किंचित् दिग्दर्शन करके उस समय के उन दो चमकते हुए रत्नों का परिचय प्राप्त करेंगे, जिनके प्रति आज पश्चिमीय सभ्यता के विद्वान् भरे बने हुए हैं। किसी भी देश की किसी समय की हालत जानने के लिए उस देश को राजनैतिक, सामाजिक और धार्मिक परिस्थिति को जानना आवश्यक है। जब तक उस देश की इन सब दशाओं का चित्र हमारे नेत्रों के अगाड़ी नहीं खींचा जायगा, तब तक उस देश का सच्चा धौर यथार्थ परिचय पाना कठिन है। बाज भारतीयों के पतन का यह भी एक मुख्य कारण है कि ये प प्राचीन पुरुषों के इतिहास से प्रायः अनभिज्ञ हैं। प्रत्येक जाति का उत्थान उसके प्राचीन पादर्शो को उसके प्रत्येक सदस्य के हृदय में बिठा देने पर बहुत कुछ लम्बित है, मतएव यहां पर हम उस समय के भारत की इन दवाओं का किंचित वृत्त निम्न में अंकित करते हैं। ईसा की छठी शताब्दि भारत के लिए ही नहीं बल्कि सारे संसार के लिए एक अपूर्व शताब्दि थी। कोई भी देश ऐसा न बचा था जो इसके क्रान्तिकारी प्रभाव से अछूता रहा हो। भारत में इसका रोमांचकारी प्रभाव खूब हो रंग लाया था। राजनैतिक, सामाजिक और धार्मिक सभी ग्रवस्थानों में इसने रूपान्तर लाकर खड़े कर दिये थे। मनुष्य हर तरह से सच्ची स्वाधीनता के उपासक बन गए थे, परन्तु इसमें उस समय के दो चमकते हुए रत्नों भगवान महावीर और महात्मा बुद्ध का अस्तित्व मूल कारण था । उस समय यहां की राजनैतिक परिस्थिति अजय रंग ला रही थी। साम्राज्यवाद का प्रायः सर्व ठौर एक छत्र राज्य नहीं था. प्रत्युत प्रजातंत्र के ढंग के गणराज्य भी मौजूद थे। एक और स्वाधीन राजाओंों की बाकी धान में भारतीय प्रजा सुख की नींद सो रही थी, तो दूसरी पोर गणराज्यों के उत्तरदायित्वपूर्ण प्रबन्ध मे सब लोग स्वतंत्रता पूर्वक स्वराज्य का उपभोग कर रहे थे। दोनों और रामराज्य छा रहा था। इन गणराज्यों का प्रबन्ध ठोक प्राजकल के ढ़ंग के प्रजातंत्रात्मक राज्यों की तरह किया जाता था । नियमितरूप में प्रतिनिधियों का चुनाव होता था, जो राजकीय मण्डल अथवा "सांथागार" में जाकर जनता के सच्चे हित की कामना से व्यवस्था की योजना करते थे। न्यायालयों का प्रबन्ध भी प्रायः भाजकल के ढंग का था, परंतु उस समय वकील वैरिष्टरों की आवश्यकता नहीं थी। न्यायाधीश स्वयं वादी प्रतिवादों के कथन को जांच करते थे और यही नहीं कि प्रारम्भिक न्यायलय जो जांच कर दे वही बहाल रहे प्रत्युत ऊपर के न्यायालय भो स्वयं स्थित की पड़ताल करते थे। प्रचलित कानूनों की किताब भी मौजूद थी और फुलबेंच की तरह बठकूलक न्यायालय सदृदा न्यायालय भी थे। इस प्रजातन्त्रात्मक गणराज्य का आदर्श हमें उस समय के दियों के विवरण में मिलता है। जैन और बीट ग्रन्थ इनके विषय में प्रकाश उपस्थित करते हैं। इन ग्रन्थों के अध्ययन से मालूम होता है कि उस समय प्रस्यात गणराज्य इस प्रकार थे. 1 - 1 (१) लिच्छवि गणराज्य इसमें इक्ष्वाकुवंशीय क्षत्रियों का प्राधिक्य था और इसकी राजधानो विशाला अथवा शाली विशेष समृद्धिशाली नगरी थी। इस गणराज्य के प्रधान राजा चेटक थे । बौद्ध ग्रन्थ इस राज्य में आठ कुलों के क्षत्रियों का प्रतिनिधित्व बतलाते हैं, परन्तु जैनों के ग्रंथ में उनकी संख्या नौ है । इस गणराज्य की राजधानी वैशाली के निकट श्रवस्थित कुण्डपुर अथवा कुण्डनगर के क्षत्रिय राजा सिद्धार्थ थे, जो भगवान महावोर के पिता थे। वे सम्भवत: इसो गणराज्य में सम्मिलित थे और इसी कारण भगवान महावीर का उल्लेख कभी-कभी "वैशालिय के रूप में हुआ है। वह गणराज्य विशेष समृद्धिशाली था और यहां जैन धर्म की मान्यता अधिक थी। काशी और कौशल के गणराज्य, जिनके प्रतिनिधि (जो राजा कहलाते थे वे जैन शास्त्र कल्पसूत्र में अठारह बतलाये गये हैं, सम्भवतः इनसे सम्बन्धित थे। इन सब गणराज्यों को व्यवस्थापक सभा वज्जियन राजसंघ कहलाती थी। उस समय इन लोगों को शक्ति विशेष प्रबल भी यहां तक कि भगवा धिपति भी सहसा इन पर आक्रमण नहीं कर सके थे, बल्कि पहले तो स्वयं चेटक ने एक दर्फ जाकर राजगृह का घेरा डाल दिया था और अन्ततः राजा श्रेणिक और बेटक में समझौता हो गया था। -- - बुद्ध (२) शाक्य गणराज्य इसकी राजधानी कपिलवस्तु थी और वहां के प्रधान राजा शुद्धोदन थे। यही म० बुढ के पिता थे। बुद्ध की जन्मनगरी यही थी। इनकी भी सत्ता उस समय अच्छी थी । (३) मल्ल गणराज्य में मल्लवंशीय क्षत्रियों की प्रधानता थी । बौद्ध ग्रन्थों से पता चलता है कि यह दो भागों में विभाजित था । कुसीनारा जिस भाग की राजधानी थी उससे म० बुद्ध का सम्बन्ध विशेष रहा था और दूसरे भाग को राज ७५५

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