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प्रधानतामा निशा समाज में रहा बाह्मणों ने सामाजिक व्यवस्था को एक तरह से अपनी आजीविका का कारण बना लिया था। उसी अपेक्षा उन्होंने धर्मशास्त्रों के पठन-पाठन का अधिकार इतरवर्गा-प्रोत क्षत्रिय, वैश्य, शूद्रों को नहीं दे रक्खा था, प्रत्युत उनके प्रात्म कल्याण के लिए अपने पापको पुजवाना हो इष्ट रक्खा था। जनता को बतलाया था कि तुम अमुक प्रकार यज्ञ प्रादि क्रियाओं को कराकर हमारी सन्तुष्टि करो तो तुम को स्वर्गसुख को प्राप्ति होगी और इस स्वर्गसुख के लालच में लोग उस समय भो यज्ञवेदी को निरापराध मुक पशुओं के रक्त से रगते नहीं हिचकते थे। यहां भी शूद्रादि मनुष्यों को बहुत ही नीची दृष्टि से देखा जाता था । परिणामतः राजकीय स्वतन्त्रता के उस युग में लोगों को ब्राह्मणों को यह भेद ब्वयस्था और एकाधिपत्य प्रखर उठा । प्रचलित सामाजिक व्यवस्था के बन्धनों का उल्लंघन किया जाने लगा । सचमुच वर्तमान सामाजिक क्रान्ति कुछ अस्पष्ट रूप दिखाई पड़ रही है, ठीक वैसा ही जो क्रांति उस समय के समाज में अपना रंग ला रही थी। ब्राह्मणों ने जहाँ स्वार्थ भरे कठोर नियम रक्खे थे वहां बिल्कूल ढिलाई से काम लिया जाने लगा । सामाजिक नियमों में सबसे मुख्य विवाह नियम है सो उस समय इसका क्षेत्र विशेष बिस्तृत था और इसकी वह दुर्दशा नहीं थी जो आजवल हो रही है। युवावस्था में वर-कन्याओं के सराहनीय विवाह सम्बन्ध होते थे। उनमें गुणों का ही लिहाज किया जाता है । जैन और बौद्ध शास्त्रों में इस व्याख्या की पुष्टि में अनेकों उदाहरण मिलते हैं। ऐसा मालूम होता है कि उस जमाने में व्यक्तिगत विवाह सम्बन्ध की स्वाधीनता इतना उग्ररूप धारण किए था कि किन्हीं २ राज्यों में विवाह सम्बन्ध के खास नियम भी बना लिये गये थे। इस व्याख्या के अनुरूप अभी तक केवल एक वैशाली के लिच्छवियों के विषय में विदित है। उनके यहां यह नियम था कि वैशाली की कन्यायें वैशाली के बाहर न दी जावें । तथापि जिस तरह वैशाली तीन खण्डों-(१) क्षत्रिय खण्ड, (२) ब्राह्मण खण्ड और (३) वश्य खण्ड में विभाजित थी उसी तरह इनके निवासियों में अपने और अपने से इतर खण्ड की कन्या से विवाह करने का नियम नियत था। शायद इसी कारण से 'सम्राट्' श्रेणिक के साथ राजा चेटक अपनी कन्या का विवाह नहीं करेंगे, यह सम्भावना जैन शास्त्रों में की गई है। यद्यपि वहां इसका कारण राजा चेटक का जैनत्व और सम्राट श्रेणिक का बौद्धत्व बतलाया गया है। इसमें भी संशय नहीं है कि राजा चेटक जैन धर्मानुयायी थे, परन्तु इससे वैशाली में उक्त प्रकार नियम होने में कोई बाधा उपस्थित नहीं होती। वस्तुत: वैशाली, जहां जैन धर्म का प्रचार प्रारम्भ से अधिक था, यदि अपनी सामाजिक परिस्थिति को नये सुधार के प्रचलित रिवाजों से कुछ विलक्षण रखने में गर्व करे तो कोई आश्चर्य नहीं, क्योंकि यह हमको ज्ञात नहीं है कि लिच्छविगण बड़े स्वात्माभिमानी थे और वह अपने उच्चवंशी जन्म के कारण नारी समाज में अपना सिर ऊंचा रखते थे। किन्तु इससे भी उस समय की सामाजिक क्रन्ति के अस्तित्व का समर्थन होता है, जिसके विषय में प्राच्य विद्या महार्णव स्व० मि० होस डेविड्स भी लिखते हैं कि उस समय :
"ऊपर के तीन वर्ण (ब्राह्मण, क्षत्री, वैश्य) तो वास्तव मूल में एक ही थे, क्योंकि राजा, सरदार और विप्रादि तीसरे वर्ण वैश्य के ही सदस्य थे, जिन्होंने अपने को उच्च सामाजिक पद पर स्थापित कर लिया था । वस्तुत: ऐसे परिवर्तन होना जरा कठिन थे परन्तु ऐसे परिवर्तनों का होना सम्भव था । गरीब मनुष्य राजा-सरदार बन सकते थे और फिर दोनों ही ब्राह्मण हो सकते थे। ऐसे परिवर्तनों के अनेकों उदाहरण ग्रन्थों में मिलते हैं।
इसके अतिरिक्त ब्राह्मणों के क्रियाकांड एव सर्व प्रकार की सामाजिक परिस्थिति के पुरुष स्त्रियों के परस्पर सम्बन्ध के भी उदाहरण मिलते हैं और यह उदाहरण केबल उच्च परिस्थिति के ही पुरुष और नीच कन्याओं के सम्बन्ध के नहीं है, बल्किी नीच पुरुष और उच्च स्त्रियों के भी हैं।"
अतएव वस्तुतः उस समय ऐसी सामाजिक परिस्थिति होना कुछ अचरज भरी बात नहीं है। स्वयं म. बुद्ध और भगवान महावीर के उपदेश से सामाजिक परिस्थिति की उल्झी गुत्यो प्रायः सुलझ गई थो । म बुद्ध ने स्पष्ट रोति से कहा था कि कोई भी मनुष्य जन्म से ही नीच नहीं होता है बल्कि वह द्विजगण जो हिसा करते नहीं हिचकते हैं और हृदय में दया नहीं रखते हैं, वह नीच हैं । वासेठसुत्त में जब ब्राह्मणों से वाद हुआ तब बुद्ध ने कहा कि जन्म से ब्राह्मण नहीं होता है,न अब्राह्मण होता है किन्तु कर्म से ब्राह्मण होता है और कम से ही अबाह्मण होता है। भगवान महावीर ने अपने अनेकांत तत्व के रूप में इस परिस्थित को बिल्कुल ही स्पष्ट कर दिया। उन्होने कहा कि जन्म से भी ब्राह्मण आदि होता है और कर्म से भी । पाचरण पर ही उसका महत्व प्रबलंबित बतलाया। स्पष्ट कहा है कि :
संताणकमेणागय जीवयण रस्स गोदमिदि सण्णा। उच्च नीच चरणं नीचं हवे गोदं ।।
-गोमट्टसार