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हो सकती और न यह कहा जा सकता है कि इनकी शिक्षाओं का संस्कृत रूप भगवान् महावीर का स्याद्वाद सिद्धान्त है, जैसे कि कतिपय विद्वान् ख्याल करते हैं।
___चौथे मत प्रवर्तक अजित के कम्बलि थे यह वादक क्रियाकाण्ड के कट्टर बिरोधी थे। और पुनर्जन्म सिद्धान्त को अस्वीकार करते थे । इनका मत था कि लोक पृथ्वी, जल, अग्नि और वायु का समुदाय' है और प्रात्मा पुद्गल के कीमयाई ढंग का परिणाम है। इन चारों चीजों के विघटते हो वह भी विघट जाता है। इसलिए वह कहता था कि जीव और शरीर एक हैं (तम् जीवो तम् सरीरम) और प्राणियों की हिंसा करना दुष्कर्म नहीं है। इसकी इस शिक्षा में भी जन सिद्धान्त के व्यवहार नय को अपेक्षा प्रात्मा पीर पुदगल संमिश्रण का विकृत रूप मजर पाता है। भगवान् पार्श्वनाथ ने इस सिद्धान्त का प्रतिपादन किया था ही, उस ही के आधार पर अजित ने अपने इस सिद्धान्त का निरूपण किया, जिसके अनुसार हिंसा करना भी बुरा नहीं था। विद्वान् लोग अजित को ही भारत में केवल पुद्गलवाद का आदि प्रचारक ख्याल करते हैं। चार्वाक मत की सृष्टि अजित के सिद्धान्तों के बल पर हई हो तो आश्चर्य नहीं ।
पांचवे मतप्रवर्तक पकुडकात्यायन थे। प्रश्नोपनिषद् में इनको ब्राह्मण ऋष पिप्पलाद का समकालीन बतलाया गया है और यह ब्राह्मण थे। इनकी मान्यता थी कि 'असत्ता में से कुछ भी उत्पन्न नहीं होता और जो है उसका नाश नहीं होता (सतो नच्चि विनसो, असतो नच्चि सम्भवो । सूत्रकृतांग २-१२२) इस अनुरूप में इन में सात सनातन तत्व बतलाये, यथाः (१) पृथ्वी (२) जल (३) अग्नि (४) बायु (५) सुख (६) दुःख और (७) प्रात्मा, इन्हीं सात के सम्मिलन और बिच्छेद से जीवन व्यवहार है । सम्मिलन सुखतत्व से होता है और विच्छेद दुखतत्व से। इस कारण इनका परस्पर एक दूसरे पर कुछ प्रभाव है नहीं, जिससे किसी व्यक्ति को खास नुक्सान पहुंचना भी मुश्किल है। पकुड़ की प्रथम मान्यता सांख्य, वैशेषिक, वेदांत, उपनिषध, जैन और बौद्धों के अनुरूप है । यद्यपि अंतिम कुछ अटपटे ही ढंग का बिवेचन है। यह शीत जल में जीव होना भी मानने थे।
इन मत प्रवर्तकों में हम इस बात का खास उद्देश्य देखते हैं कि वह पुण्य पाप को मेटकर हिंसावादी की पुष्टि करते हैं । म बुद्ध ने भी मत पशमों के मांस खाने का निषेध नहीं किया, जैसे कि हम पागाड़ी देखेंगे। अस्तु, इससे जैन धर्म का इनसे पहले अस्तित्व प्रमाणित होता है, अर्थात् भगवान पार्श्वनाथ की शिष्य परम्परा के ऋषिगण भी इस समय मौजद थे और उन्होंने जो अहिंसामई स्याद्वाद का संयुक्त धर्म प्रतिपादन किया था उससे लोग भड़क गये थे, परन्तु वे सहसा अपनी मांसलिप्सा का मोह नहीं त्याग सके थे । इसी कारण उन्होंने भगवान पार्श्वनाथ के उपदेश को विकृत रूप देखकर अपनी जिह्वालम्पटता के उद्देश्य की सिद्धि की थी। यहाँ तक कि ऐसे तापस भी मौजद थे जो वर्ष भर के लिए एक हाथी को मारकर रख छोड़ते थे और उसी द्वारा उदरपूर्ति करते हुए साधु होने की हामी भरते थे।
सारांशतः यह प्रकट है कि उस समय धार्मिक प्रवृत्ति भी बड़ी ही नाजुक अवस्था में हो रही थी। भगवान महावीर और म० बुद्ध के समय में उपरोक्त मत प्रवर्तकों द्वारा इसका सुधार नहीं हो पाया था परिणामतः इस सामाजिक और धार्मिक कान्ति के अवसर पर म. बुद्ध ने परिस्थिति को बहुत कुछ सुधारा और फिर भगवान महावीर के दिव्योपदेश से जनता यथार्थता को पा गई और अपनी सुख समृद्धशाली दशा में सामाजिक उदारता और यात्मिक स्वाधीनता के सुख-स्वप्न में लीन हो गई। अतएव निम्न के पृष्टों में हम तुलनात्मक रीति से म० बुद्ध और भगवान् महावीर के जीवनों और उनके सिद्धान्तों पर एक दृष्टि डालेंगे।
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