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भगवान महावीर और महात्मा बुद्ध
भगवान महावीर और महात्मा बुद्ध के समय का भारत
भारतवर्ष वही है जो पहले था। इसके नाम में, इसके रूप में, इसके वेष में, इसके शरीर में ही किसी तरफ से भी विरुद्धता नजर नहीं भाती। वही पृथ्वी है, वहीं बोलाकाश है, वहीं कलकत करयकारिणो सरितायें है, वही निश्वन निस्तस्य गम्भीर पर्वत हैं, सचमुच सब कुछ नही दृष्टि माता है जो जैसा या सा दृष्टिगत हो रहा है कहीं भी अन्तर दिखाई नहीं पड़ता है। मनुष्य वही घाये हैं या के विवास प्रतीत होते हैं। यद्यपि इनके विषय में यह अवश्य साया रमक है कि वस्तुतः क्या इसमें सर्व ही आर्य वंशज हैं? परन्तु इतना तो स्पष्ट हो है कि मूल में भारतवासीमा है बार जब यह आर्य हैं तब इसतिर भी प्राची से होना ही चाहिए। किन्तु यदि यही बात सच है जो दशा पहले मुद्दों युगों पहले घो वहीं आज है तो फिर संसार में परिवर्तनशीलता का अस्तित्व कहां रहा? क्या युगां पहले के भारतai में और आज के भारत वर्ष में कुछ भी अन्तर नहीं है ? भारतवर्ष का ज्ञात इतिहास इस बात का स्पष्ट दिग्दर्शन करा देता है कि नहीं, भारतवर्ष जैसा १५ वीं १६ वीं शताब्दी में था वैसा श्राज नहीं है और जैसा ईसा का प्रारम्भिक शताब्दियां में था वैसा उपरोक्त मध्यकालीन शताब्दियों में नहीं था, तो फिर उसका सनातन रूप कहो रहा? वह जैसा पहले था सा बाज है। यह माना जाय ? बात बिल्कुल ठीक है, भारत का रूप भारत को दक्षा और भारत की प्राकृति समयानुसार रंग बदलतो रही है, परन्तु क्या कभी उस क्षेत्र का अभाव हुआ जो भारतवर्ष कहलाता है अमवा वहां के अधिवासियों का अन्त हुआ जो, भारतवासी कहलाते हैं ? नहीं, यह सब बातें पों को त्यों रही हैं. ऐसी अवस्था में समान्यतः यहां पर एक गोरखधन्यासा नेत्रों के प्रगाड़ी उपस्थित हो जाता है, किन्तु यदि उसका निर्णय यथार्थ सत्य प्रकाश में स्थिति के धवल उज्ज्वल आलोक में करें तो हम स्थिति को सहज समझ जाते हैं ।
संसार में जितनी भी वस्तुयें हैं वह सररूप है। उनका भी नाश नहीं होता, किन्तु उनमें परिवर्तन अवश्य होता रहा है एक अवस्था का जन्म होता है तो उसका अस्तित्व हो जाता है, परन्तु उसके नाथ के साथ ही दूसरी अवस्था उत्पन्न हो जाती है । यह क्रम यों ही चालू रहा है और प्रगाड़ी रहेगा। यही संसार है । हम सहज समझ सकते हैं कि भारतवर्ष मूल में तो वही है जो युगों पहले था, परन्तु उसकी हर अवस्था में अनेकों रूपान्तर समयानुसार अवश्य हुए हैं। यही उसका वास्तविक रूप है। वस्तु
भारतवर्ष मूल में तो वही है जो भगवान महावीर और भगवान बुद्ध के समय में था, परन्तु तब की दशा और अब की दशा इस प्राचीन भारत की अवश्य ही जमीन आसमान जैसा अन्तर रखती है। इतना महत् अन्तर और फिर एकता । यही यथार्थ सत्य की विचित्रता है। आज कर्णफूलों और गले बन्द से कामिनी की शोभा बढ़ रही थी - कल तवियत बदली - कर्णफूल और गले बन्द नष्ट कर दिये गये - चन्दन हार और कंघन उसके वक्षस्थल एवं करों को अलंकृत करने लगे। यहां तो पूरा काया पलट हो गया, परन्तु सोना तो वहीं का वहीं रहा, मूल उसका जब था सो अब है ।
अस्तु भारतवर्ष वही है जो भगवान महावीर और भगवान बुद्ध के समय में था परन्तु उसमें हर तरफ से उस्ट फेर के चिह्न नजर आते हैं आज यहाँ के मनुष्य ही न उतने प्रतिमा और शक्ति सम्पन्न है और न उतने दीर्घजीवी है। बाज के भारत को नैतिक और धार्मिक प्रवृत्ति न उस समय जैसी है और न उसकी प्रधानता का सिक्का किसी के हृदर पर जमा हुआ हे आज यहाँ के निवासी बिल्कुल दोन हीन रंक बने हुए हैं। बुद्धि बल, ऐश्वर्य सब का दिवाला निकाने बैठे है। तब के भारत का अनुकरण ग्रन्य देश करते थे और उसको अपना गुरु मानकर यूनान सदृश उन्नतशील देश के विद्वान जरे पर्रहो यहां विद्याध्ययन करने खाते थे, परन्तु माज उल्टी गंगा बह रही है। स्वयं भारतीय इन विदेशों में जाकर ज्ञानोपार्जन की मिसाल कायम कर रहे हैं और उन देशों की नकल समीकर किये चले जा रहे हैं इस भौतिक-सभ्यता की उपासना का कितना कटु परिनाम भारत को शीघ्र ही भुगतना पड़ेगा, यह अभी इस देश के अधिवासियों की समझ में नहीं पाया है, परन्तु जमाना उनकी
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