________________
कवि दण्डिन (पाठवीं श०) अपने "दशकुमारचरित" में दिगम्बर मनि का उल्लेख 'क्षपणक' नाम से करते हैं। जिससे उनके समय में नग्नमुनियों का होना प्रमाणित है ।।
"पञ्चतन्त्र' (तन्त्र ४) का निम्न श्लोक उस काल में दिगंबर मुनियों के अस्तित्व का द्योतक है :-- "स्त्रीमद्रां मकरध्वजस्य जयिनी सर्वार्थ सम्पत करौं । चे मूढाः प्रविहाय यान्ति बुधियो मिथ्या फलांवेषिणः ।। ते तेनैव निहत्य निर्दयतर नग्नीकृता मण्डिताः । केचिद्रवतपटीकृताश्च जटिला: का पालिकाश्चापरे ।।"
‘पञ्चतन्त्र" के "अपरीक्षितकारक पञ्चमतन्त्र" की कथा दिगम्बर मुनियों से सम्बन्ध रखती है। उससे पाटलिपुत्र (पटना) में दिगंबर धर्म के अस्तित्व का बोध होता है । कथा में एक नाई को क्षपणक विहार में जाकर जिनेन्द्र भगवान की वन्दना और प्रदक्षिणा देते लिखा है। उसने दिगम्बर मुनियों को अपने यहां निमन्त्रित किया, इस पर उन्होंने आपत्ति को कि श्रावक होकर यह कहते हो ? ब्राह्मणों की तरह यहां आमन्त्रण कसा? दि० मुनि तो पाहार वेला पर घूमते हुये भक्त श्रावक के यहां शुद्ध भोजन मिलने पर विधि पूर्वक ग्रहण कर लेते हैं । इस उल्लेख से दिगम्बर मनियों के निमन्त्रण स्वीकार न करन और आहार के लिये प्रभण करने के नियम का समर्थन होता है । इस तन्त्र में भी दिगम्बर मुनि को एकाकी, गृहत्यागो, पाणिपात्र भोजी और दिगम्बर कहा है ।।
"प्रबोधचंद्रोदयनादक" के अंक ३ में निम्नलिखित वाक्य दिगम्बर जैन मुनि की तत्कालीन बाहुल्यता के बोधक हैं :---
''सहि पेक्ख पेक्ख एसो गलतमल पंक पिच्छिलवी-हच्छदेहच्छवीउल्लुञ्चि अचिउरो मुक्कवसणवेसदुद्दसणो सिहिसिहृदपिच्छमाहत्थो इदोज्जेब पडिवहदि ।"
भावार्थ-"हे सखि देख, दन्य, बह इस पोर पा रहा है। उसका शरीर भयंकर और मलाच्छन्न है । शिर के बाल लञ्चित किये हये हैं और वह नंगा है। उसके हाथ में मोरपिच्छिका है और वह देखने में अमनोश है।" इस पर उस सखी ने कहा कि
'प्रां ज्ञातं मया, महामोहप्रवत्तितोऽयं दिगंबर सिद्धांतः।"
(ततः प्रविशति यथानिद्दिष्ट: क्षपणकवेशो दिगम्बर सिद्धांतः) भावार्थ---"मैं जान गई ! यह मायामोह द्वारा प्रवर्तित दिगम्बर (जैन) सिद्धान्त है।" (क्षपणकवेष में दिगम्बर मुनि ने वहां प्रवेश किया।
नाटक के उक्त उल्लेख से इस बात का भी समर्थन होता है कि दिगम्बर मुनि स्त्रियों के सम्मुख घरों में भी धर्मोपदेश के लिये पहुंच जाते थे।
गोलाध्याय" नामक ज्योतिप में दिगम्बर मुनियों की दो सूर्य और दो चन्द्रादि विषयक मान्यता का उल्लेख जसका निर्सन किया गया है। इस उल्लेख से 'गोलाध्याय' के कता के समय में दिगम्बर मनियों का बाहल्य प्रमाणित होता भोलाध्याय के टीकाकार लक्ष्मीदास दिगंबर सम्प्रदाय से भाव "जनों" का प्रकट करते हैं और कहते हैं कि "जैनों में --.-..--.-- -- - - ---- ---- - - - -. .---. .
१. वीर, वर्ष २ पृ० ३१७ २. पल नियसागर प्रेस सं० १६०२ पृ० ११४-IG. XIV 124.
पण बिहारं गत्वा जिनेन्द्रस्य प्रदक्षिरण त्रयं विधाय"""| "भोः श्रावक, धर्मशोषि किमेवं वदसि । कि वयं ब्राह्मणसमाना: यत्र आमन्त्रण करोपि । वयं सदैव तत्काल परिचर्यया भ्रमन्तो भक्तिभाज थावकमवलोक्य तस्य गहे गच्छामः ।.."पत.. ५.२६ JG: XIV. 126-130 ४. 'गवाकीगृहमत्यतः पाणिपाचे दिगम्बरः।' ५. प्रबोध चन्द्रोदय नाटक अंक ३-JG., XIV. pp. 46-50.
७०५