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बड़ी संख्या में पहने और उनके धर्मोपदेश से अनेकानेक तामिल स्त्री-पुरुप जैन धर्म में दीक्षित हये थे।"
'मणिमेखल" काव्य में उसकी मूख्य पात्री मणिमेखला एक निम्रन्थ माधु से जैन धर्म के सिद्धान्तों के विषय में जिज्ञासा करती भी बताई गई है। इस तथा इस काव्य के अन्य वर्णन से स्पष्ट है कि ईस्वी की प्रारम्भिक शताब्दियों में तामिल देश में दिगम्बर मुनियों की एक बड़ी संख्या मौजद थी और तामिल देश में विशेष मान्य तथा प्रभावशाली थे।
शैव और वैष्णव सम्प्रदायों के तामिल साहित्य में भी दिगम्बर मुनियों का वर्णन मिलता है। शंवों के 'पेरियपुण्णम्' नामक ग्रन्थ में मूर्ति नायनार के वर्णन में लिखा है कि कलभ्र वंश के क्षत्री जैसे ही दक्षिण भारत में पहुंच से ही उन्होंने दिगम्बर जैन धर्म को अपना लिया। उस समय दिगम्बर जैनों की संख्या वहां अत्यधिक थी और उनके माचार्यों का प्रभाव कलभ्रों पर विशेष था! इस कारण शैव धर्म उन्नत नहीं हो पाया था। किन्तु कलभ्रों के बाद सब धर्म को उन्नति करने का अवसर मिला था। उस समय बौद्ध प्राय: निष्प्रभ हो गये थे, किन्तु जैन अब भी प्रधानता लिये हुये थे। शैवाचार्यों का बादशाला में मुकाबला लेने के लिए दिगम्बराचार्य--जैन श्रमण ही अबशेष थे। दर्शवों में सम्बन्दर और अप्पर नामक प्राचार्य जैन धर्म के कट्टर विरोधी थे। इनके प्रचार से साम्प्रदायिक विद्वेष की आग तामिल देश में भड़क उठी थी। जिसके परिणाम स्वरूप उपरान्त के शव ग्रन्थों में ऐसा उपदेश दिया हुआ मिलता है कि बौद्धों और रामणों (दिगम्बर मुनियों) के न तो दर्शन करो और न उनके धर्मोपदेश सुनो । बल्कि शिव से यह प्रार्थना की गई है वह शक्ति प्रदान करें जिससे बौद्धों और समणों (दि. मुनियों के सिर फोड़ डाले जायं ; जिनके धर्मोपदेश को सुनते २ उन लोगों के कान भर गये हैं। इस विद्वेष का भी कोई ठिकाना है ! किन्तु इससे स्पष्ट है कि उस समय भी दि० मुनियों का प्रभाव दक्षिण भारत में काफी था ।
वैष्णव तामिल साहित्य में भी दिगम्बर मुनियों का विवरण मिलता है। उनके 'तेवारम' (Tevaran) नामक ग्रन्थ से ई० सातवीं पाठवीं शताब्दि के जैनों का हाल मालूम होता है। उक्त ग्रन्थ से प्रगट हैं कि “इस समय भी जैनों का मुख्य केन्द्र मदुरा में था। मदुरा के चहुं ओर स्थित अनैमल, पसुमल आदि पाठ पर्वतों पर दिगम्बर मुनिगण रहते थे और बे हो जन संघ का संचालन करते थे। वे प्रायः जनता से अलग रहते थे—उससे अत्यधिक सम्पर्क नहीं रखते थे। स्त्रियों से तो वे विल्कुल दूर २ रहते थे। नासिका स्वर से वे प्राकृत व अन्य मन्त्र बोलते थे। ब्राह्मणों और उनके बेदों का वे हमेशा खला विरोध करते थे। कडी थप में वे एक स्थान से दूसरे स्थान पर वेदों के विरुद्ध प्रचार करते हुए विचरते थे। उनके हाथ में पीछी, चटाई और एक छत्री होती थी। इन दिगम्बर मुनियों को सम्बन्दर द्वेषवश बन्दरों की उपमा देता है। किन्तु दे सैद्धान्तिक वाद करने के लिये वडे लालायित थे और उन्हें विपक्षी को परास्त करने में आनन्द प्राता था। केशलोच ये मुनिगण करते थे और स्त्रियों के सम्मुख नग्न उपस्थित होने में उन्हें लज्जा नहीं आती थी। भोजन लेने के पहले ये अपने शरीर की शुद्धि नहीं करते थे (अर्थात स्नान नहीं करते थे)। मन्त्र शास्त्र को वे खुब जानते थे और उसकी खूब तारीफ करते थे।"
विज्ञानसम्वन्दर और अप्परने जो उपरोक्त प्रमाण दिगम्बर मुनियों का वर्णन दिया है, यद्यपि वह द्वंप को लिये हुये हैं. परन्तु तो भी उससे उस काल में दिगम्बर मुनियों के बाहुल्य रूप में सर्वत्र बिहार करने, बिकट तपस्वी और उत्कट वादी होने का समर्थन होता है।
.--- .--.- ..- - -.... -- १. Ibid . pp. 47-48 'That these Jains were the Digan haras is clearly scen from their viescription..... The Jains look every advantage of the opportunity and large was the number of those that cmbraced this faith".
3. "Manimekajai asked the Nigantha to state who was luis God and what he was taught in his sacred books. ele. "-"SS]]., pt. I. p. 50
३. bid, P. 55
x. It would appear from a general study of the litcrature of the period that Buddhism had declined as an active religion but Jainism had still its stronghold. The chicf opponents of these saints were the Samanas or the Jainas."-BS. p. 689
५. SSIJ. Pt. pp. 60-66 ६. तिक्ष्मत-BS, P692 ७.SSIJ, Pt. IPP. 68-70
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