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के दानरूप, जो ....."ल की पुत्री,........ की बह, थेष्ठि बेणी को प्रथम पत्नी, भट्टिसेन को माता थी, मेहिक कुल के पाये जयभूति की शिष्या अर्य संगमिका को प्रति शिष्या वसुला की इच्छानुसार (अपित हुई थी)।
इसमें दिगंबर मुनि जयभूति का उल्लेख 'आर्य' विशेषण से हुम्रा है। ऐसे ही अन्य उल्लेखों से वहां का पुरातत्व तत्कालीन दिसंबर मुनियों के सम्माननीय व्यक्तित्व का परिचायक है ।
अहिच्छत्र (बरेली) के पुरातत्व में विगम्बर मुनि अहिच्छत्र (बरेली) पर एक समय नागवंशी राजायों का राज्य था और वे दिगंबर जैन धर्मानुयायी थे। वहां के कटारी खेडा की खदाई में डा० फहरर सा० ने एक समूचा सभा मन्दिर खुदवा कर निकलवाया था। यह मन्दिर ई० पूर्व प्रथम शताब्दी का अनुमान किया गया है और यह श्रीपाश्र्वनाथ जी का मन्दिर था। इसमें से मिली हुई मूर्तियां सन् १६ से १५२ तक की हैं, जो नग्न है । यहाँ एक ईंटों का बना हुया प्राचीन स्तूप भी मिला था, जिसके एक स्तम्भ पर निम्न प्रकार लेख था--
"महाचार्य इन्द्रनन्दि शिष्य पार्श्वयतिस्स कोट्टारी।" प्राचार्य इन्द्रनन्दि उस समय के प्रख्यात् दिगंबर मुनि थे ।
कौशाम्बी के पुरातत्व में दिगम्बर-संघ कौशाम्बी का पुरातत्व भी दिगंबर मुनियों के अस्तित्व का पोषक है। वहां से कुशानकाल का मथुरा जसा पाया. गपटट मिला है, जिसे राजा शिवमित्र के राज्य में प्रार्य शिवनन्दि की शिष्या बड़ी स्थाविरा बलदासा के कहने से शिवपालितने अहंत की पूजा के लिए स्थापित किया था । इस उल्लंख से उस समय कौशाम्बो में एक बृहत् दिगंबर जैन संघ को रहने का पता चलता है।
कुहाऊका गुप्तकालीन लेख वि० मुनियों का घोतक है कहाऊ (गोरखपुर) से प्राप्त पुरातत्व गुप्तकाल में दिगम्बर धर्म की प्रधानता का द्योतक है। वहां के पापाण स्तम्भ में नीचे की ओर जैन तीर्थकर और साघुओं की नग्न मूर्तियां और उस पर निम्नलिखित शिलालेख है
"यस्योपस्थानभूमि पति-शत-शिर; पात-वातावधूता । गुप्तानां वंशजस्य प्रविसृतयशसस्तस्य सर्वोत्तमद्धैः ।। राज्ये शक्रोपमस्य क्षितिप शत-पतेः स्कन्दगुप्तस्य शान्तेः। वर्ष त्रिशंदशकोत्तरक-शत तमे ज्येष्ठ मासे प्रपन्ने - स्यातेऽस्मिन् ग्राम-रत्ने ककुभ इति जनस्साधु-- संसर्गपूते पुत्रो यस्सोमिलस्य प्रचुर-गुण निधर्भट्टिसोमो महार्थः तत्सून रुद्रसोमः पृथुलमतियशा व्या घरत्यन्य संशो मद्रस्तस्यात्मजो---भूद्विज-गुरुयतिषु प्रायशः प्रीतिमान्यः ।। इत्यादि"
भाव यही है कि संवत् १४१ में प्रसिद्ध तथा साधुनों के संसर्ग से पवित्र ककुभ ग्राम में ब्राह्मण-गरु और यतियों को प्रिय मद्र नामक विष रहते थे, जिन्होंने पांच अर्हत्-बिम्ब निर्मित कराये थे। इससे स्पष्ट है कि उस समय ककुभ ग्राम में दिगम्बर मुनियों का एक बृहत् संघ रहता था।
राजगृह (बिहार) के पुरातत्व में दि० मुनियों की साक्षी राजगृह (विहार) का पुरातत्व भी गुप्तकाल में वहां दिगंबर मुनियों के बाहुल्य का परिचायक है। वहां पर गुप्तकाल की निर्मित अनेक दिगंबर जैनभूतियां मिलती हैं। और निम्न शिलालेख वहां पर दिगंबर जैन संघ का अस्तित्व प्रमाणित करता है--
"निर्वाणलाभाय तपस्वि योग्ये शुभेगहेऽहत्प्रतिमाप्रतिष्ठे।।
प्राचार्य रत्नम् मुनि वरदेवः विमुक्तये कारय दीर्घतेजः ।" १. वीर, वर्ष ४ १. ३१० २. संप्रजस्मा० पृष्ठ ८१-८२ (General Cunningham) found a number of fragmentary naked Jain statues, some inscribed with dates ranging from 96 to 152 A. d. ३. संप्रास्मा०, पृ. २७ ४. पूर्व०, पृ० ३-४ X. SPC)V., Plate 1l (b)
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