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सन् १२०५ के लेख में वर्णन है कि बेलगाम में जब राष्ट्रराजा कीतिवर्मा और मल्किार्जुन राज्य कर रहे थे तब श्री शुभचन्द्र भटारक की सेवा में राजा वीचा के बनाए गए राट्टों के जनमन्दिर के लिये भूमिदान किया गया था। एक दूसरा लेख भी इन्हीं राजाओं द्वारा शुभचन्द्र जी को अन्य भूमि अर्पण किये जाने का उल्लेख करता है इसमें कीर्तवीर्य की रानी का नाम पदमावती लिखा है । सचमुच उस समय वहां पर दिगम्बर मुनियों का काफी प्रभुत्व था।
बेलगामान्तर्गत कोन्नर स्थान से भी राडराजा का एक शिला लेख शाका १००६ का मिला है जिसका भाव है कि "चालुक्य राजा जयकर्ण के आधीन राट्रराज मण्डलेश्वर सेन कोन्नर आदि प्रदेशों पर राज्य करता था, तब बालात्कारगण के वंशधरों को इन नगरों का अधिपति उसने बना दिया था। यहां के जैनमन्दिरों को चालुक्य राजा कौन्न व जयकर्ण द्वारा दान दिये जाने का उल्लेख मिलता है । इनरो दिगम्बर मुनियों का महत्व स्पष्ट है।
वेलगाम जिले के कलहोले ग्राम में एक प्राचीन जैनमन्दिर है, जिसमें एक शिलालेख रादरजा कार्तवीर्य चतर्थ और मल्लिकार्जुन का लिखाया हुआ मौजूद है। उसमें श्रीशांतिनाथ जी के मन्दिर को भूमिदान देने का उल्लेख है। मंदिर के गुरु श्री मूलसंघ कुन्दकुन्दाचार्य की शाखा हणसांगी वंशक थे। इस वंश के तीन गुरु मलधारी थे, जिनके एक शिष्य सैद्धांतिक नेमिचन्द्र थे। श्री नेमिचन्द्र के शिष्य शुभचन्द्र थे। जिन्होंने दिगम्बर धर्म की बहुत उन्नति की थी। उनके शिष्य श्री ललितकीति थे।
वेलगाम जिले में स्थित राथवाग ग्राम में भी एक जैनशिलालेख राडराजा कार्तवीर्य का है। उससे विदित है कि कार्तवीर्य ने भ० शुभचन्द्र को शाका ११२४ में राट्टों के उन जैन मंदिरों के लिए दान दिया था जिन्हें उसको माता चन्द्रिकादेवी ने स्थापित किया था। इससे चन्द्रिका देवी का दि० मुनियों और तीर्थकरों का भक्त होना प्रगट है।
बीजापुर किले की मूर्तियां दि० मुनियों की धोतक बीजापुर के किले की दिगम्बर मुर्तियाँ सं० १००१ में श्री विजयसूरि द्वारा प्रतिष्ठित हैं। उनसे प्रकट है कि बीजापुर में उस समय दिगम्बर मुनियों की प्रधानता थी।
तेवरी को दिगम्बर मुति तेवरी (जबलपूर) के तालाब में स्थित दि. जैनमंदिर की मूर्ति पर बारहवीं शतादिद की लेख है कि "मानादित्य की स्त्री रोज नमन करती है। इससे वहाँ पर जनमुनियों का राजमान्य होना प्रगट है।
दिल्ली के मूति लेखों में दि० मुनि दिल्ली नयामंदिर कटघर की मूर्तियों पर के लेख १५वीं शताब्दी में दिगम्बर मुनियों का अस्तित्व प्रगट करते हैं। श्री आदिनाथ की मूर्ति पर लेख है कि "सं० १४२५ ज्येष्ठ सुदि १२ सोमवासरे काष्ठासंघे माथुरान्वये भ० थीदेवसेन देवासतत्प त्रयोदशविधचारित्रेनालंकृतः सकल बिमल मुनिमंडली शिष्यः शिखामणय: प्रतिष्ठाचार्यवर्य श्री विमलसेनदेवास्तेषामुपदेशेन जाइसबालान्दये सा० पुरइपति । इत्यादि। इन्हीं मूनि विमलसेन की शिष्या अजिंका गुणश्री विमलथी थी, यह बात उसी मंदिर की एक अन्य मूर्ति पर के लेख से प्रकट है।
लखनऊ के मूति-लेख में निन्थाचार्य लखनऊ चौक के जैनमंदिर में विराजमान श्री आदिनाथ की मूर्ति पर के लेख से विदित है कि सं० १५०३ में श्री भ. सकलकीति के शिष्य श्री निर्ग्रन्थाचार्य विमलकीति थे, जिनका उपदेश और विहार चहुं ओर होता था।
चावलपट्टी (बंगाल) के जैनमन्दिर में विराजमान दशधर्म यन्त्र लेख से प्रकट है कि सं० १५८६ में प्राचार्य श्री रत्नकीति के शिष्य मुनि ललितकीति विद्यमान थे, जिनकी भक्ति भ्रमरीबाई करती थी।
२. Ibid pp 80-81
१. बंताजस्माप० ०७४-७५ २. Ibid pp 82-83 ४. Ibid p 108 ५. दिजडा० पृ० २८७ ६. प्रयलेसं० पृष्ठ २५
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