________________
ताकिक चक्रवर्ती श्री देवकीति शक संवत् १०:५ के लेख में ताकिक चक्रवर्ती श्री देवकीति मुनि का तथा उनके शिष्य लखनन्दि, माधवेन्दु और त्रिभुवन मल्ल का पता चलता है। उनके विषय में कहा :---
"कुर्वेनमः कपिल-वादि-वनोग्न-वन्हये चार्वाक-वादि-मकराकर-बाडवाग्नये । बौद्धोप्रवादितिमिरप्रविभेदभानवे श्रीदेवकीत्तिमनये कविवादिवाग्मिने ॥
"चतुर्म ख चतुर्वक्तूनिर्गमागमदुस्सहा ।
देवकीर्तिमुखाम्भोजे नत्यतीति सरस्वती ।।" सचमुच मुनि देवकी तिजी अपने समय के अद्वितीय काबि, ताकिक और बक्ता थे । वे महामण्डलाचार्य और विद्वान थे और उनके समक्ष सांख्यिक, चावकि, नैयायिक, वेदान्ती, वौद्ध मादि सभी दार्शनिक हार मानते थे।'
महाकवि मुनि श्री श्रुतकीति उक्त समय के एक अन्य शिलालेख में मुनि रेडीत की पुर परमारा दी है। जिससे प्र है कि मनि कनकनन्दि और देवचन्द्र के भ्राता श्रुतकीर्ति विद्यमान ने देवेन्द्र सदश विपक्षबादियों को पराजित किया था और एक चमत्कारी काव्य राघबपाण्डवीय की रचना की थी, जो प्रादि से अन्त को व अन्त से आदि को, दोनों ओर से पढ़ा जा सके । इससे प्रकट है कि उपरोक्त मुनि देवकीर्ति के शिष्य यादव-नरेश नारसिंह प्रथम के प्रसिद्ध सेनापति और मंत्री हुल्लप थे ।
श्री शुभचन्द्र और रानी जवकणचे शक सं० १०६ के लेख में मंत्री नागदेव के गरु श्री नयीति योगीन्द्र व उनकी गुरुपरम्परा का उल्लेख है। शक सं० १०४५ के लेख से प्रगट है कि होयसाल महाराज गंग नरेश विष्णवर्द्धन ने अपने गुरु शुभचन्द्र देव की निषद्या निर्माण कराई थी। इनकी भावज जनक्कणव्वे की जैन धर्म में दढ़ श्रद्धा थी और वह दिगम्बर मुनियों को दानादि देकर सरकार किया करती थी। उनके विषय में निम्न प्रकार उल्लेख है :--
"दोरेये जक्कणिकन्वेगी भुवनदोल चारित्रदोल् शीलदोल परमश्रीजिनपूजेयोल सकलदानाश्चर्यदोल सत्यदोल् । गुरुपादाम्बुजभक्तियोल विनयदोल भव्यक्कलंकन्ददादरिदं मन्निसुतिर्प पेम्पिने डेयोल मत्तन्यकान्ताजनम् ॥"
श्रीगोल्लाचार्य प्रभृत अन्य दिगम्बराचार्य शक सं० १०३७ के लेख में है कि मुनि त्रैकाल्ययोगी के तप के प्रभाव से एक ब्रह्म-राक्षस उनका शिष्य हो गया था। उनके स्मरणमात्र से बड़े-बड़े भूत भागते थे, उनके प्रताप मे करंज का तेल घृत में परिवर्तित हो गया था। गोल्लाचार्य मनि होने के पहले गोल्लदेश के नरेश थे। नत्न चन्दिल नरेश के वंश चूड़ामणि थे। सकलचन्द्र मनि के शिष्य मेषचन्द्र विद्य थे, जो सिद्धान्त में बीरसेन, तर्क में अकलंक और व्याकरण में पुज्यपाद के समान विद्वान थे। शक सं० १०४४ के लेख में दण्डनायक गंग राज की धर्मपत्नी लक्ष्मीमति के गुण, शील और दान की प्रशंसा है वह दिगम्बराचार्य श्री शुभचन्द्रजो की शिन्या थीं। इन्हीं आचार्य की एक अन्य धर्मात्मा शिष्या राजसम्मानित चमुण्डको स्त्री देवमति थी । शक सं० १०६८ के लेख में अन्य दिगम्बर मनियों के साथ श्री शुभकीति प्राचार्य का उल्लेख है, जिनके सम्मुख बाद में बौद्ध, मीमांसकादि कोई भी नहीं ठहर सकता था। इसी में श्री प्रभाचन्द्रजी की शिष्या विष्णुवर्द्धन नरेशकी पटरानी शान्तलदेवी की धर्मपरायणता का भी उल्लेख है। १. शिप्त पृ. २३-.-२४
२. Ibid pp. 24-30 ३.bid. pp. 33-42
४. [bid, pp.43.49 ५. Ibid. pp. 55-66
६. Ibid, pp. 67-70 ७. Ibid. pp. 80-81
७२६