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अर्थात्-"निर्वाण की प्राप्ति के लिए तपस्वियों के योग्य और श्री अर्हन्त की प्रतिमा से प्रतिष्ठित शुभमुफा में मुनि वरदेव को मुक्ति के लिये परम तेजस्वी प्राचार्य पद रूपी रत्न प्राप्त हुआ यानि मुनि वरदेव को मुनि संघ ने प्राचार्य स्थापित किया।" इस शिलालेख के निकट ही एक नग्न जैन मूर्ति का निम्न भाग उकेरा हुआ है, जिसमे इसका सम्बन्ध दिगम्बर मुनियों से स्पष्ट है 19
बंगाल के पुरातत्व में दिगम्बर मुनि गुप्तकाल और उसके बाद कई शताब्दियों तक बंगाल, आसाम और उड़ीसा प्रान्तों में दिगम्बर जैनधर्म बह प्रचलित था । नग्न जैन मूर्तियां वहां के कई जिलों में बिखरी हुई मिलती हैं। पहाड़पुर (राजशाही) गुप्तकाल में एक जैन केन्द्र था । वहां से प्राप्त एक ताम्र लेख दिगम्बर मुनियों के संघ का द्योतक है। उसमें अंकित है कि "गुप्त सं० १५६ (सन् ४७६ ई०) में एक ब्राह्मण दम्पति न निग्रन्थ बिहार की पूजा के लिये बटगहलो ग्राम में भूमिदान दी। निम्रन्थ संघ प्राचार्य गहनन्दि और उन के शिष्यों द्वारा शासित था !"
कादम्ब-राजाओं के ताम्रपत्रों में दिगम्बर मुनि देवगिरि (धाडवाड़) से प्राप्त कादम्बवंशी राजाओं के ताम्रपत्र ईस्वी पाँचवी शलादि में दिगम्बर मुनियों के वैभव को प्रकट करते हैं। एक लेख में है कि महाराजा कादम्ब र श्र. कृष्णवर्मा के राजकुमार पुत्र देववर्मा ने जैन मन्दिर के लिए यापनोय संघ के दिगम्बर मनियों को एक खेत दान दिया था। दूसरे लेख में प्रगट है कि "काकुष्ठवंशी श्री शान्तिवर्मा के पुत्र कादम्चमहाराज मगेश्वरबर्मा ने अपने राज्य के तीसरे वर्ष में परल रा के आचार्यों को दान दिया था । तोमरे लेख में कहा गया है कि "इसी मृगेश्वरवर्मा ने जैन मन्दिरों और निग्रन्थ (दिगम्बर) तथा श्वेतपट (श्वेतांबर) संघों के साधुओं के व्यवहार के लिये एक कालवंग नामक ग्राम अर्पण किया था।"
उदयगिरि (भिलसा) में पांचवीं शताब्दी की बनी हुई गुफाये हैं, जिनमें जनसाधु ध्यान किया करते थे। उनमें लेख भी हैं।
अजन्ता की गुफानों में दि० मनियों का अस्तित्व अजन्टा (खानदेश) की प्रसिद्ध गुफाओं के पुरातत्व से ईस्वी सातवीं शताब्दि में दिगम्बर जैन मुनियों का अस्तित्व प्रमाणित है। वहां की गुफा नं. १३ में दिगम्बर मुनियों का संघ चित्रित है। नं० ३३ की गुफा में भी दिगम्बर मूर्तियां है ।
बादामो की गुफा बादामो (बीजापुर) में सन् ६५० ई. की जैनगुफा उस जमाने में दिगम्बर मुनियों के अस्तित्व की द्योतक है। उसमें मुनियों के ध्यान करने योग्य स्थान हैं और नग्न मूर्तियाँ अंकित हैं।"
चालुक्य-राजा विक्रमादित्य के लेख में दिगम्बर मनि लक्ष्मेश्वर (धाड़वाड़) की संखवस्ती के शिला लेख से प्रगट है कि संखतीर्थ का उद्धार पश्चिमीय चालुक्यबंशी राजा विक्रमादित्य द्वितीय (शाका ६५६) ने कराया था और जिन पूजा के लिए श्री देवेन्द्र भट्टारक के शिष्य मुनि एकदेव के शिष्य जयदेव पंडित को भूमिदान दी थी। इसमे विक्रमादित्य का दिगम्बर मुनियों का भक्त होना प्रगट है। वहीं के एक अन्य लेख से मलसंध के श्री रामचन्द्राचार्य आर. श्रीविजयदेव पंडिताचार्य का पता चलता है । सारांशतः वहां उस समय एक उन्नत दिगम्बर जनसंघ विद्यमान था।
१. बंविओजम्मा०, पृ० १६ २. 1HQ., Vol. VII p. 441 ३. Modern Review, August 1931, p. 150 ४. IA. VIL 33-34 व बंप्रास्मा०, पृ. १२६ . . मप्रारमा०, १० ६. बंप्रास्मा०, पृ०५५-५६ ७. Ibid. p. 103 4. ]bid. pp. 124-125
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