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बौद्धों से वाद' करके उनका पराभव और जैन धर्म का उत्कर्ष प्रकट किया था। कांची का हिमभीतल राजा उनका मुख्य शिष्य था। उनके रचे हुए ग्रन्थ में राजवात्तिक, अष्टशती, न्यायविनिश्चयालंकार आदि मुख्य हैं।'
श्री जिनसेनाचार्य राजाओं से पूजित श्री वीरसेन स्वामी के शिष्य श्री जिनसेनाचार्य सम्राट अमोघवर्ष के गुरू थे। उस समय उनके द्वारा जैन धर्म का उत्कर्ष विशेष हुमा था। वह अद्वितीय कवि थे। उनका "पाश्र्वाभ्युदयकाव्य" कालिदास के मेघदुत काव्य की समस्यापूर्ति रूप में रचा गया था। उसको दूसरो रचना 'महापुराण' भी काव्यदृष्टि से एक श्रेष्ठ ग्रन्थ है। उनके शिष्य गुणभद्राचार्य ने इस पुराण के शेषांश की पूर्ति की थी।
__ श्री विद्यानन्ति प्राचार्य:-श्री विद्यानन्दि प्राचार्य कर्णाटक देशवासी और ग्रहस्थ दशा में एक वेदानुयायी ब्राह्मण थे। 'देवागम' स्तोत्र को सुनकर बह जैन धर्म में दीक्षित हो गये थे। दिगम्बर मुनि होकर उन्होंने राजदरबारों में पहुंच कर ब्राह्मणों पौर बौद्धों से वाद किये थे, जिनमें उन्हें विजय श्री प्राप्त हुई थी। श्रष्टसहस्री, प्राप्तपरीक्षा प्रादि ग्रन्थ उनकी दिव्य रचनायें हैं।
श्री वादिराज-श्री वादिराज सूरि नन्दि संघ के प्राचार्य थे। उनकी 'पटतर्कपण्मुख', स्याद्वादविद्यापति' और 'जगदेकमल्लवादी' उपाधियाँ उनके गौरव और प्रतिभा की सूचक हैं। उनको एक बार कुष्ट रोग हो गया था, किन्तु अपने योगबल से 'एकीभावस्तोत्र रचते हुए उस रोग से वह मुक्त हुए थे। यशोधर चरित्र, पार्श्वनाथ चरित्र आदि ग्रन्थ भी उन्होंने रचे थे।
आप चालुक्य वंशीय नरेश जयसिंह की सभा के प्रख्यात वादी थे। वे स्वयं सिंहपुर के राजा थे। राज्य त्याग कर दिगम्बर मुनि हुए थे। उनके दादा-गुरू श्रीपाल भी सिंहपुराधीश थे । (जैमि०, वर्ष ३३ अंक ५ पृ०७२)
इसी प्रकार श्री मल्लिषणाचार्य, श्री सोमदेव सुरि आदि अनेक लब्धप्रतिष्ठत दिगम्बर जैनाचार्य दक्षिण भारत में हो गुजरे हैं, जिनका वर्णन अन्य ग्रन्थों से देखना चाहिए ।
इन दिगम्बराचार्यों के विषय में उक्त विद्वान् प्रागे लिखते हैं कि 'समग्र दक्षिण भारत विद्वान् जैन साधुनों के छोटेछोटे समूहों से अलंकृत था, जो धीरे-धीरे जैन धर्म का प्रचार जनता की विविध भाषामों में ग्रन्थ रचकर कर रहे थे। किन्तु यह समझना गलत है कि यह साधगण लौकिक कार्यों से विमुख थे। किसी हद तक यह सच है कि वे जनता से ज्यादा मिलतेजुलते नहीं थे। किन्तु ई०पू० चौधा शताब्द में मेगास्थनीजके कथन से प्रगट है कि जन श्रमण, जो जंगलों में रहते थे, उनके पास अपने राजदूतों को भेजकर राजा लोग वस्तुओं के कारण के विषय में उनका अभिप्राय जानते थे। जन गुरुत्रों ने ऐसे कई राज्यों की स्थापना की थी, जिन्होंने कई शताब्दियों तक जैन धर्म को प्राश्रय दिया था।"
प्रो. डा. बी० शेषागिरिराव ने दक्षिण भारत के दिगम्बर मुनियों के सम्बन्ध में लिखा है कि "जैन मुनिगण विद्या और विज्ञान के ज्ञाता थे; आयुर्वेद और मन्त्रशास्त्र के भी वे महा विद्वान थे; ज्योतिष ज्ञान उनका अच्छा खासा था; न्यायशास्त्र सिद्धान्त और साहित्य को उन्होंने रचा था। जैन मान्यता में ऐसे सफल एक प्राचीन आचार्य कुन्दकुन्द कहे गए हैं। जिन्होंने बेलारी जिले के कोनकुण्डल प्रदेश में ध्यान और तपस्या की थी।
------- १. lbid पृ. ४६ । २. Jbid पृ० ५०-५१ ।
३.bid पृ० ५१-५२ । ४. Ibid पृ०५३ ।
4. "The whole of South India strewn with small groups of learned Jain ascetics, who were slowly but surely spreading their morals through the medium of their sacred literature composed in the various vernaculars of the country. But it is a mistake to suppose that these ascetics were indifferent towards secular afairs in general. To a certain extent it is true that they did not mingle with the word. But we know from the account of Megasulines that, so late as the 4th century B. C., "The Sarmanes or the Jain Sarmanes who lived in the woods were frequently consulted by the kings through their messengers regarding the cause of things', Jaina Gurus have been founders of States that for centuries together were tolernat towards the Jain faith."
-SSIJ., I 106. ६. SSIJ. pt. II pp.9-10
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