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कर ली' । कलिंगचक्रवर्ती ऐल खारबेल जैन थे। उनकी सेवा में इन राजानों में से पाण्ड्यराज ने स्वतः राज-भट भेजी थी। इससे भी इन राजाओं का न होना प्रमाणित है, क्योंकि एक श्रावक का थावक के प्रति अनुराग होना स्वाभाविक है और जब ये राजा जैन थे तब इनका दिगंबर जैन मुनियों को प्राश्रय देना प्राकृत आवश्यक है।
पाण्ड्यराज उग्रपेरूवलूटी (१२८-१४० ई.) के राजदरबार में दिगंबर जैनाचार्य श्री कुन्दकुन्द विरांचत तामिलग्रन्य "कुरल" प्रगट किया गया था । जैन कथाग्रन्थों से उस समय दक्षिण भारत में अनेक दिगम्बर मुनियों का होना प्रगट है। 'करकण्डु चरित' में कलिंग, तेर, द्रविड़ आदि दक्षिणवर्ती देशों में दिगंबर मुनियों का वर्णन मिलता है। भ० महावीर ने संघसहित इन देशों में विहार किया था, यह ऊपर लिखा जा चुका है । तथा मौर्य चन्द्रगुप्त के समय भूत केवली भद्रबाह का संघ सहित दक्षिण भारत को जाना इस बात का प्रमाण है कि दक्षिण भारत में उनसे पहले दिगम्बर जैनधर्म विद्यमान था। जनग्रन्थ "राजावली कथा" में वहां दिगम्बर जैन मन्दिरों और दिगंबर मुनियों के होने का वर्णन मिलता है। बौद्धग्रन्थ 'मणिमेखले में भी दक्षिण भारत में ईस्वी की प्रारम्भिक शताब्दियों में दिगम्बर धर्म और मुनियों के होने का उल्लेख मिलता है।
'श्रतावतार कथा' से स्पष्ट है कि ईस्वी को पहली शताब्दि में पश्चिम और दक्षिण भारत दिगम्बर जैनधर्म के केन्द्र थे। श्रीधर सेनाचार्य जी का संघ गिरनार पर्वत पर उस समय विद्यमान था। उनके पास पागम ग्रन्थों को अवधारण करने के लिए दो तीक्षण-बुद्धि शिष्य दक्षिण मदरा से उनके पास आये थे और उपरान्त उन्होंने दक्षिण मदुरा में चतुर्मास व्यतीत किया था। इस उल्लेख से उस समय दक्षिण मदुरा को दिगम्बर मुनियों का केन्द्र होना सिद्ध है।
"नाल दियार" और दिगम्बर मुनि
तामिल जैन काव्य "नालदियार", जो ईस्वी पांचवीं शताब्दि की रचना है, इस बात का प्रमाण है कि पाण्डयराज का देश प्राचीन काल में दिगम्बर मुनियों का प्राश्रय स्थान था। स्वयं पाण्ड्यराज दिगम्बर मुनियों के भक्त थे। "नालदियार" की उत्पत्ति के सम्बन्ध में कहा जाता है कि एक दफा उत्तर भारत में दुभिक्ष पड़ा। उससे बचने के लिये आठ हजार दिगम्बर मनियों का संध पाण्ड्यदेश में जा रहा । पाण्ड्य राज उन मुनियों को विद्वत्ता और तपस्या को देखकर उनका भक्त बन गया। जब अच्छे दिन आये तो इस संघ ने उत्तर भारत की ओर लौट जाना चाहा; किन्तु पाण्ड्यराज उनको सत्संगति छोड़ने के लिये तैयार न थे। आखिर उस मुनिसंघ का प्रत्येक साधु एक-एक श्लोक अपने अपने पासन पर लिखा छोड़ कर विहार कर गये। जव ये श्लोक एकत्र किये गपे तो वह संग्रह एक अच्छा खासा काव्यग्रन्थ बन गया। यही "नाल दियार' था। इससे स्पष्ट है कि पाण्ड्य देश उस समय दिग० जैनधर्म का केन्द्र था और पाण्ड्य राज कलभ्रवंश के सम्राट थे। यह कलभ्रवंश उत्तर भारत से दक्षिण में पहुंचा था और इस वंश के राजा दिगम्बर मुनियों के भक्त और रक्षक थे।
१. "तहि अस्थि विकितिय दिरणसराउ-संचल्लिर ताकरकण्डराउ ।
ता दिविढदेसुमहि अलु भमन्तु-संतत्तक नहि मछरुवहन्तु ।। तहि चोडे चोर पंडिय णिवाइ -करणा विखणड ते मिनीयाहि ।" "करकण्डएं धरियाते सिरसो सिरमन मतिय बरणेहि तहो । मउड़ महि देखिवि जिणाणिव करकण्डवोजाय उ बहुलु दुह ॥१०॥
-करकण्डूचरित् संधि २.JBORS., IIl p.446. ३. मजैस्मा०, पृ० १०५ ४. SSIJ., pp. ३२-३३ ५. श्रुता० पृ०१६-२० ६. SSIJ., p. 91 ७. मजस्मार, भूमिका पु० -६
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