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वहां के दिगम्बर मुनियों में सं० १२६६ के प्राचार्य रत्मकीर्ति प्रसिद्ध थे। वह स्याद्वादविद्या के समुद्र, बाल ब्रह्मचारी, तपसी और दयालु थे। उनके शिष्य नाना देशों में फैले हुए थे ।'
मध्य प्रान्त के प्रसिद्ध हिन्दू शासक कलचूरी भी दिगंबर जैनधर्म के प्राश्रयदाता थे।
बंगाल में भी दिगम्बर धर्म इस समय मौजद था, यह बात जैन कथानों से सपाट है । 'भक्तामर कथा' में चम्पापर का राजा कर्ण जैनी लिखा है। भ० महावीर की जन्म नगरी विशाला का राजा लोकपाल जनी था। पटना का राजा धावाबालन श्री शिवभूषण नामक मूनि के उपदेश से जनी हया था। गौड़श का राजा प्रजापति वावधर्मों था; परन्तु जनसाध मनि. सागर की वादशक्ति पर मुग्ध होकर प्रजासहित जनी हुया था | इस समय का जी जैन शिल्प बंगाल प्रादि प्रांतों में मिलता है, उससे उक्त जैन कथाओं का समर्थन होता है। प्राज तक वंगाल में प्राचीन श्रावक 'सराक' लोगों का बड़ी सम्या में मिलता वहाँ पर एक समय दिगम्बर जैनधर्म की प्रधानता का द्योतक है।
इस प्रकार मध्यकाल के हिन्दु राज्यों में प्रायः समग्र उत्तर भारत में दि० मुनियों का विहार और धर्म प्रचार होना था पाठवीं शताब्दि के उपरान्त जब दक्षिण भारत में दिगम्बर जैनों के साथ अत्याचार हान लगा, तो उन्होंने अपना केन्द्रस्थान उत्तर भारत की मोर बढ़ाना शुरू कर दिया था। उज्जैन, वारानगर, ग्वालियर यादि स्थानों का जन केन्द्र होना. उस दीवार का द्योतक है । ईस्वी ६-१० शताब्दि में जब अरब का सुलेमान नामक यात्री भारत में आया तो उसने भी यहां नंगे साधनों को एक बड़ी संख्या में देखा था। सारांशतः मध्यकालीन हिन्दू काल में दिगम्बर मुनियों का भारत म वाइल्य था।
भारतीय संस्कृत-साहित्य में दिगम्बर मुनि
"पाणिः पात्रं पवित्र भ्रमणपरिगतं भैक्षमक्षय्यमन्न। विस्तीर्ण बस्त्रमाशा सुदश कममल तल्पमस्वल्पमूवी॥ येषां निःसंग तांगी करणपरिणति: स्वात्मसन्तोषिनास्ते । धन्याः सन्यस्तदैन्यव्यतिकरनिकराः कर्मनिम लयन्ति ।।
-वैराग्यशतक । भारतीय संस्कृत साहित्य में भी दिगम्बर मुनियों के उल्लेख मिलते हैं। इस साहित्य से हमारा मतलब उस सर्वसाधारणोपयोगी संस्कृत साहित्य से है, जो किसी खास सम्प्रदाय का नहीं कहा जा सकता। उदाहरणतः कविवर भूत हरि के शतकत्रय को लीजिये । उनके 'वैराग्यशतक' में उपरोक्त श्लोक द्वारा दिगम्बर मुनि को प्रसंसा इन शब्दों में की गई है कि "जिनकी हाथ ही पवित्र बर्तन है, मांग कर लाई हुई भीख ही जिनका भोजन है, दशा दिशायें ही जिनके वस्त्र हैं, सम्पूर्ण पथ्वी ही जिनका शय्या है, एकान्त में नि:संग रहना ही जो पसन्द करते हैं, दीनता को जिन्होंने छोड़ दिया है तथा कर्मों को जिन्होंने निर्मल कर दिया है और जो अपने में ही संतुष्ट रहते है, उन पुरुषों को धन्य है ।" आगे इसी 'शतक' में कविवर दिगम्बर मुनिवत् चर्या करने की भावना करते हैं:--
१. हि , भा०६ अंक ७-८ पृ. ७६; २. जपा०, पृ० २४०-२४३
३. “In India there are persons, who, in accordance with their profession, Wander in the woods and mountains and rarely cominunicate with the rest of mankind.........Some of them ga about naked."
-Sulaiman of Arab, Elliot., I. p.6 ४. वेजे०, पृ. ४६
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