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२८. विवसन–बस्त्र रहित मनि । वेदान्तसूत्र की टीका में दिगम्बर जैन मुनि विवसन' और "विसिच" कडे गए । २६. संयमी (संयत्)-यम नियमों का पालक सो दिगम्बर मुनि । उल्लेख य है--
"पंचमहब्वय जुत्तो तिहि गुत्तिाह जो स संजदो होई । ५ ३०. स्थविर--दीर्घ तपस्वो रूप दिगम्बर मनि । "मुलाचार" में उल्लेख इस प्रकार है:
"तत्व ण कप्पइ वासो जत्थ इमे णस्थि पंच आधारा।
पाइरिय उवज्झाया पवत्त थेरा गणधराय।।" ३१. साधु-यात्म साधना में लोन दिगम्बर मुनि । इनको भी कुछ परिग्रह न रखने का विधान है ?
वालग्ग कोडिमत्तं परिग्रह गहणं ण होई साहणाँ ।
भुजेइ पाणिपत्त दिग्णाणं इक्क ठाणम्मि ।।१७॥ ३२. सन्यस्त'- सन्यास ग्रहण किये हुए होने के कारण दिगम्बर मनि इस नाम से भी प्रख्यात हैं। ३३. श्रमण-अर्थात समरसीभाव सहित दिगम्बर साधु । उल्लेख यं हैं:
वन्दे तव सावण्णा (वन्दे तपः श्रमणान) ६
समणोमेत्ति य पढम बिदिभं सब्वत्थ संजदो मेति । ३४.क्षपणक-नग्न साधु । दिगम्बराचार्य योगीन्द्र देव ने यह शब्द दिगम्बर साधु के लिये प्रयुक्त किया है .
तरुणउ बूढउ पडउ सूरउ पंडिउ दिव्व ।
खवणउ बंदउ सेवडउ मूढ़उ मण्णइ सव्व ।।८३|| श्वेताम्बर जैन ग्रन्थों में भी दिगम्बर मनियों के लिए यह शब्द ब्यवहत हया है -
खोमाणराजकुलजोऽपिसमुद्र सूरिगच्छं शशास किल दमवण प्रमाण (?)। जित्वा तदां क्षपणकान्स्ववर्श वितेने।
नागेंद्रदे (?) भुजगनाथनमस्य तीर्थे । श्रीमनिसन्दर सरि ने अपनी गूर्वावली में इस इलोक के भाव में "क्षपणकान्" की जगह "दिग्वसनान"पदा गोग करके इस दिगम्बर मनि के लिए प्रयुक्त हुआ स्पष्ट कर दिया है। श्वेताम्बराचार्य हेमचन्द्र ने अपने कोष में निम्न का पर्यायवाची शब्द "क्षपणक" भी दिया है।'' यही बात श्रीधरसेन के कोष से भी प्रकट 11 प्रजन शारी शब्द दिगम्बर जैन साधुओं के लिए व्यवहुत हुप्रा मिलता है। उत्पल कहता है १६:
निर्गन्थो नग्न: क्षपणकः।" "अद्वैतब्रह्मसिद्धि" (पृष्ठ १६६) से भी यही प्रकट है:
_ "क्षपणका जैनमार्गसिद्धान्तप्रवर्तका इतिकेचिन ।” "प्रबोधचंद्रोदय नाटक" (अक ३) में भी यही निर्दिष्ट किया गया है 116
क्षपणवानेशो दिगम्बर सिद्धान्तः । "पंचतंत्र अपरीक्षितकारकतंत्र दशकुमार चरित्र" तथा "मुद्राराक्षस नाटक" "में भी "क्षपणक" शब्द दिगम्बर
बाना
१. वेदान्तसूत्र २-२-६३ वांकरभाष्य-वीर वर्ष २ १०३१७ २. अष्ठ पृ०७१
३. मूला पृ. ३१ ५. बुजशा, पृ०४
६, अष्ट०, पृ० ३५ ८. 'परमात्म प्रकाश'-रथा पर १४. ..रधा०, पृ. १३६ ११. 'नग्नो विवाससि मागचे च क्षपणके।' १३. JHQiii. 245 १५. (erपणक विहार गत्वा)—'एकाकीगृहसत्यत: गागिणपात्रो दिगम्बरः ।' १६. द्वितीय उच्चावास वीर वर्ष२ पृ० ३१ १७, मुद्राराक्षस अंक ४-वीर, वर्ष ५ पृ. ४३०
४. अष्ट, पृ०६७ ७. मूला०, पृष्ट ४५.
१०. रथा, पृ० १४० ... १२. 'नग्नस्त्रिषु विवस्त्रे स्यात्पुंसि क्षपन्दिनोः ।
१४. J.G.IXV 48