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सम्राट् ऐलखारवेल आदि कलिंग नृप और दिगम्बर मुनियों का उत्कर्ष । "नन्दराज-नीतानि कालिंग-जिनम्-संनिवेस'.....'गहरतनान पडिहारेहि अङ्गमागध बसवु नेयाति ।”
(१२ वी पंक्ति ) "सुकति-समण सुबिहितानं च सतदिसान भनितम् तपसि-इसिन संघियनं प्ररहत निसीदियासमीपे पभरे बरकारसमुथपतिहि अनेकयोजनाहिताहि प सि ओ सिलाहि सिंहपथ-रानि सिधुडाय निसयानि....."घंटा (य) क (तो) चतरे च बेडरियगभे थंभे पतिठापयति ।" (१५-१६ वी पंक्ति)
हाथीगुफा शिलालेख । कलिंगदेश में पहले तीर्थकर भगवान गड के एक पुत्र ने पहले नहले राज्य मिला था । जब सर्वज्ञ होकर तीर्थङ्कर ऋषभ ने पायं खण्ड में बिहार किया तो वह कलिङ्ग भी पहुंचे थे। उनके धर्मोपदेश से प्रभावित होकर तत्कालीन कलिंग राजा अपने पुत्रको राज्य देकर दिगंबर मुनि हो गये थे। बस, कलिंग में दिगम्बर-मुनियों का सद्भाव उस प्राचीन काल से है।
राजा दशरथ अथवा यशधर के पुत्र पांच सौ साथियों सहित दिगम्बर मुनि होकर कलिङ्गदेश से ही मुक्त हुए थे। तथा वह पवित्र कोटिशिला भी उसी कलिगङ्गदेश में हैं, जिसको श्रीराम-लक्ष्मण ने उठाकर अपना बाहुबल प्रगट किया था और जिस पर से एक करोड़ दिगम्बर-मुनि निर्वाण को प्राप्त हुए थे । सारांशतः एक अतीव प्राचीन काल से कलिङ्ग देश दिगम्बरमुनियों के पवित्र चरण-कमलों से अलंकृत हो चुका है !
इक्ष्वाकुवंश के कौशल देशीय क्षत्रिय राजाओं के उपरान्त कलिङ्ग में हरिवंशी क्षत्रियों ने राज्य किया था। भगवान महावार ने सर्वज्ञ होकर जब कलिङ्ग में प्राकर धर्मोपदेश दिया तो उस समय कलिंग के जितशत्रु नामक राजा दिगम्बर मुनि हो गये और उनके साथ और भी अनेक दिगम्बर मुनि हुये थे।
उपरान्त दक्षिण कौशलवर्ती चेदिराज के वंश के एक महापुरुष ने कलिंग पर अधिकार जमा लिया था। ईस्वी पूर्व द्वितीय शताब्दि में इस वंश का ऐल खारवेल नामक राजा अपने भुजविक्रम, प्रताप और धर्म कार्य के लिए प्रसिद्ध था । यह जैन धर्म का दल उपासक था। उसने सारे भारत की दिग्विजय की थी। वह मगध के संगवंशी राजा को हराकर 'कलिंग जिन' नामक अर्हत-मूर्ति को वापस कलिंग ले पाया था। दिगम्बर मुनियों की वह भक्ति और विनय करता था। उन्होंने उनके लिए बहुत से कार्य किये थे । कुमारी पर्वत पर अर्हत् भगवान की निषद्या के निकट उन्होंने एक उन्नत जिन प्रासाद वनवाया था तथा पचहनर लाख मुद्राओं को व्यय करके उस पर वैडूर्य रत्न जड़ित स्तम्भ खड़े करवाये थे। उनकी रानी ने भी जैनमन्दिर तथा मुनियों के लिये गुफाय बनवाई थीं; जो अब तक मौजूद हैं । और भी न जाने उन्होंने दिगम्बर मुनियों के लिये क्या-क्या नहीं किया था !
उस समय मथुरा, उज्जैनी और गिरिनगर जैन ऋषियों के केन्द्रस्थान थे । खारवेल ने जैन ऋषियों का एक महासम्मे लन एकत्र किया था। मथुरा, उज्जनी, गिरिनगर, काञ्चीपुर प्रादि स्थानों से दिगंबर मुनि उस सम्मेलन में भाग लेने के लिये कुमारी पर्वत पर पहुचे थे। बड़ा भारी धर्म महोत्सव किया गया था। बुद्धिलिङ्ग, देव, धर्मसेन, नक्षत्र आदि दिगम्बर जैनाचार्य
१. हरिवंश पुराण अ० ३ दलो० ३-७ व अ०११ श्लो० १४.६१ २. "जसघर गइल्स सुवा । पंचसयाभूव कलिंग तेसम्मि ।।
कॉटिसिल कोडि मुरिण णिवारण गया णमो तेसम्मि ॥१८॥" -रिणब्वारण-कंडु गाहा ३. हरिवंशपुराण (कलकत्ता संस्करण) पु. ६२३ ४. JBORS. Vol lI pp. 434-484 ५. अंबि ओ जस्मा० पृ०६१ ६. JHQ, Vol, IV p. 522. ७. "सतदिसान भनितम् तपसि-इसिन संघियनं अरहत निसोदिया समीपे''.. चोयथि अंग अंगसतिकं तुरिय उपादयति ।"
-JBORS.XI 236-237
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