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इस प्रकार न जाने कितने मुनि पुंगव उस समय भारत में बिहार करके लोगों का हितसाधन करते थे ! उनका पता लगा लेना कठिन है ! नन्द साम्राज्य में उनको पूरा-पूरा सरक्षण प्राप्त था ।
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मौर्थ्य-सम्राट और दिगम्बर- मुनि
"वावचः श्रुत्वा चन्द्रगुप्तो नरेश्वरः । अस्यैवयोग पायें दी जनेश्वरं तपः ॥ ३६|| चन्द्रगुप्तमुनिः शीघ्र प्रथमो दशपूर्विणाम् । सर्व संघाधितो जातो विशाखाचार्य संज्ञकः ||३६|| अनेन सह संघोषि समस्त गुरुवाक्यतः । दक्षिणा पथदेशस्थ पुन्नाट विषयं वयो ॥४०॥
- हरिषेण कन्याकोप
'म उधरे' चरिमो जिगदिवस परदि चन्दवृत्तो य ।'
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- त्रिलोक प्रज्ञप्ति
नन्द राजाओं के पश्चात् मगध का राजछत्र चन्द्रगुप्त नाम के एक क्षत्रिय राजपुत्र के हाथ लगा था। उसने अपने भुजविक्रम से प्रायः सारे भारत पर अधिकार कर लिया था और 'म' नामक राजवंश की स्थापना की थी। जैनशास्त्र इस राजा को दिगम्बर मुनि भ्रमणपति घुतकेवली भद्रबाहु का शिष्य प्रगट करते हैं यूनानी राजदूत मेगास्थनीज भी चन्द्रगुप्त को श्रमण-भक्त प्रगट करता है" सम्राट चन्द्रगुप्त ने अपने बृहत् साम्राज्य में दिगम्बर मुनियों के बिहार और धर्मप्रचार करने की सुविधा की थी। धगणगति के संघ की वह राजा बहुत विनय करता था। भद्रबाहु जो बंगाल देश के कोटिकपुर नामक नगर के निवासी थे। एक दफा वहां त केवली गोवर्द्धन स्वामी अन्य दिगम्बर मुनियों सहित पा निकले; भद्रबाहु उन्हीं के निकट दीक्षित होकर दिगम्बर मुनि हो गये | गोवर्द्धन स्वामी ने संघसहित गिरनार जी को यात्रा का उद्योग किया था। इस उल्लेख से स्पष्ट है कि उनके समय में दिगम्बर मुनियों को बिहार करने की सुविधा प्राप्त थी । भद्रबाहु जी ने भी संघ सहित देश-देशान्तर के विहार किया था और वह उज्जैनी पहुंचे थे। वहीं से उन्होंने दक्षिण देश की ओर संघसहित विहार किया था क्योंकि उन्हें मालूम हो गया था कि उत्तरापथ में एक विकाल दुष्काल पड़ने को
२. हि० भा० १३ पृ० ५३१.
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९.०० १४० २१७ ।
३. बन्दाकीतिश्चन्द्रवन्मोदक खान गुप्तिनं पापवादः ॥ ज्ञाननिपानिपूजापुरंदर चतुर्द्धा दान दश प्रसाजित भास्करः ॥ ४० "समास (वा) परोत्वान्वितः समभ्यव्यं गुरो पापकादि २६ ।। " भ०
v. "That Chandragupta was a member of the Jaina community is taken by their writers as a matter of course, and treated as a known fact, which needed nither argument nor demonstration. The documentory evidence to this effect is of comparatively early date, and apparently absolved from all suspicion......The testimony of Megasthenes would likewise seem to imply that Chandragupta submitted to the devotional eaching of the Sramanas, as opposed to the doctrines of the Brahmanas. (Strabo, YV, i 60)." JRAS., Vol. IX pp, 175-176. स्वदेशोऽभूतपौण्ड्वगः ""यत्रको पुरं रम्यं दो नाकखण्डयत्।" "भद्रबाहुहाति शप्तवान्चन्तः" इदि ४३० ० १० २३ ॥ ६. “चिकीषु मितीशयात्रां रेवतकाचले ।" भद्र० पृ० १३ ।
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