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के पोषण के लिए वस्त्रादि परिग्रहयुक्त अवस्था को भी निग्रंय मार्ग घोषित कर दिया है। आज उनका सम्प्रदाय 'श्वेताम्बर जन' नाम से प्रसिद्ध है। यद्यपि उनके पूरातन ग्रन्थ दिगम्बर देष को प्राचीन और श्रेष्ठ मानते हैं; किन्तु अपने को प्राचीन सम्प्रदाय प्रगट करने के लिये वह वस्त्रादि युक्त भी निग्रंथ मार्ग प्रतिपादित करते हैं। यह मान्यता पुष्ट नहीं है । इसलिये संक्षेप में इस पर यहां विचार कर लेना समुचित है।
श्वेताम्बर ग्रन्थ इस बात को प्रकट करते हैं कि दिगम्बर (नग्न) धर्म को भगवान् ऋषभदेव ने पालन किया थावह स्वयं दिगम्बर रहे थे और दिगम्बर वेष इतर-वेपों से श्रेष्ठ है । तथापि भगवान महावीर ने निग्रंथ श्रमण के लिये दिगम्बरत्व का प्रतिपादन किया था और आगामी तीर्थकर भी उसका प्रतिपादन करंगे, यह भी श्वेताम्बर शास्त्र प्रकट करते है । अतः स्वयं उनके अनुसार भी वस्त्रादि युक्त वेष श्रेष्ठ और मूल निग्रंथ धर्म नहीं हो सकता।
"श्वेताम्बराचार्य श्री प्रात्माराम जी ने अपने "तत्व निर्णयप्रासाद" में निग्रंथ' शब्द को व्याख्या दिगम्बर भावपोषक रूप में दी है। यथा
"कथा कौपीनोतरा संगादौनाम त्यागिनो यथा जातरूप धरा निर्ग्रन्था निप्परिग्रहाः।' जनतर साहित्य और शिलालेखीय साक्षी भी उक्त व्याख्या की पुष्टि करती है। वैदिक साहित्य में 'निग्रंथ शब्द का व्यवहार 'दिगम्बर' साधु के रूप में ही हुआ मिलता है । टीकाकार उत्पल कहते हैं? .
"निग्नंथों नग्मः क्षपणकः ।" । इसी तरह सायणाचार्य भी निर्ग्रन्थ शब्द को दिगम्बर मुनि का द्योतक प्रकट करते हैं :
"कथा कौपीनोत्तरा संगादिनाम् त्यागिनी, यथाजातरूपधरा निग्रन्थानिप्परिग्रहः ।
इति संवर्तश्रुतिः।" 'हिन्दू पद्मपुराण' में दिगम्बर जैन मुनि के मुख से कहलाया गया है :
"पहन्तो देवता यत्र, निर्ग्रन्थो गुरुरुच्यते ।" प्र निगद स्वमारी साध के होते तो दिगम्बर मुनि उसे अपने धर्म का गरु न बताते। इससे स्पष्ट
१. कल्पसूत्र'-Js. Pt. 1. P. २८५ । आचारांग सूत्र में कहा है :
"Those are called naked, who in this world, never returning (to a worldly state) ( follow my religion according to the commandment. This highest doctrine has here been declared for men."...Js I. P.56
"आउरण बज्जियाणं विशुद्धजिशकप्पियाणन्तु ।"
अर्थ-"वस्त्रादि आवरणयुक्त साध से ग्रावरण रहिन जिनकल्पि साधु विशुद्ध है। (संवत् १९३४ में मुद्रित प्रवचनमारोद्धार भाग ३ पृष्ठ १३)।
२. "सेजहानामए अजोमा ममरणासं निमाणं नग्गाभावे मुण्ड भावं अण्हाणए अदनवणे अच्छाए अगुवाहणए भुमिसज्जा फलज्जा कट्टगेज्मा केसलोए वभरवासे लद्धावल व वित्तीयो जाव पपगत्ताओं एवामेष महा परमेयि अरहा समयागा रिणम वाग नग्गभावे जाव लद्धावलद्ध वित्तोओ जाव पन्नहित्ति ।"
अर्थात भगवान महावीर कहते हैं कि श्रमण नियन्ध को नग्न भाव, मुण्ट भाव, अस्नान, छत्र नहीं करना, पगरखी नहीं पहनना, भूमि शंबा, केशलोंच, ब्रह्मचर्य पालन, अन्य के गृह में भिक्षार्थ जाना, आहार की वृति जैसे मैंने कही वैसे महापद्य अरहत भी कहेंगे ।
ठाणा, पुष्ठ ८१३ 'नमिणापिडोलगाहमा। मुण्डाकण्ड विण्द्धरण ।।७२।।-सप डांम हाइ भगवंग एवं रो देते दविए बोसठ्ठनाएत्तिवच्चे, माहणेत्ति बरामणेत्ति बा मिवत्ति वा, रिणगंथेत्ति वा पडिभाह भेते ।'
-सूयश्चांग २५८ ३. IHQ. III., 245 ४. तत्वनिर्णय प्रसाद पृष्ठ ५२३–व दि० ज०१०-१-४८ ।
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