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तेजस्वी महामेरु पर्वत पर पहुंचा। वहाँ उसमें पंचम क्षीर समुद्र से लाये हुए क्षीर रूप जल के कलशों के समूह से भगवान का अभिषेक किया, आभूषण पहिनाये और बड़े हर्ष के साथ उनका नाम श्रेयांस रखा। इन्द्र मेरु पर्वत से लौटकर नगर में पाया और जिन-बालक को माता की गोद में रखा और देवों के साथ उत्सव मनाता हुया स्वर्ग चला गया। जिस प्रकार किरणों के द्वारा क्रम-क्रम से कान्ति को पृष्ट करने वाले बालचन्द्रमा के अवयव बढ़ते रहते हैं उसी प्रकार गुणों के साथ-साथ उस समय भगवान के शरीरावयव बढ़ते रहते थे । शीतलनाथ भगवान के मोक्ष जाने के बाद जब सी सागर और छयासठ लाख छब्बीस हजार वर्ष कम एक सागर प्रमाण अन्तराल बीत गया तथा प्राधा पल्य तक धर्म परम्परा ट्टी रही तब भगवान श्रेयांसनाथ का जन्म हुआ था। उनकी आयु भी इसी अन्तराल में शामिल थी। उनकी कुल आयु चौरासी लाख वर्ष की थी। शरीर सुवर्ण के समान कान्ति वाला था, ऊंचाई अस्सी धनुष की थी, तथा स्वयं बल, पोज और तेज के भंडार थे। जब उनको कुमारावस्था के इक्सीस लाख वर्ष बीत चुके तब सुख के सागर स्वरूप भगवान ने देवों के द्वारा पूजनीय राज्य प्राप्त किया । उस समय सब लोग उन्हें नमस्कार करते थे, वे चन्द्रमा के समान सबको संतृप्त करते थे और अहंकारी मनुग्यों को सूर्य के समान संतापिन करते थे। उन भगवान ने महामणि के समान अपने आपको तेजस्वी बनाया था, समुद्र के समान गम्भीर किया था, चन्द्रमा के समान शीतल बनाया था और धर्म के समान चिरकाल तक कल्याणकारी श्रुत-स्वरूप बनाया था। पूर्व जन्म में अच्छी तरह किये हुए पुण्य कर्म से उन्हें सर्व प्रकार को सम्पदाए तो स्वयं प्राप्त हो गई थी अतः उनको वृद्धि और पौरुष का व्याप्ति सिर्फ धर्म और काम में ही रहती थी। भावार्थ- उन्हें अर्थ की चिन्ता नहीं करनी पड़ती थी। देवों के द्वारा किये पुण्यानुवन्धी चुभ विद्वानों में स्त्रियों के साथ क्रीड़ा करते हुए उनके दिन व्यतीत हो रहे थे।
इस प्रकार बयालीस वर्ष तक उन्होंने राज्य किया । तदनन्तर किसी दिन वसन्त ऋतु का परिवर्तन देखकर वे विचार करने लगे कि जिस काल ने इस समस्त संसार को अस्त कर रक्खा है वह काल भी क्षण घड़ी आदि के परिवर्तन से व्यतीत होता जा रहा है तब अन्य विस पदार्थ से स्थिरता रह सकती है? यथार्थ में यह समस्त संसार विनश्वर है, जब तक शाश्वत पदअविनाशी मोक्ष पद नहीं प्राप्त कर लिया जाता है तब तक एक जगह सुख से कसे रहा जा सकता है ? भगवान ऐसा विचार कर ही रहे थे कि उसी समय साररत आदि लोकास्तिक देवों में प्राकर उनकी स्तुति की। उन्होंने श्रयस्कर पुन के लिए राज्य दिया, इन्द्रों के द्वारा दीक्षा-कल्याणक के समय होने वाला महाभिषेक प्राप्त किया और देवों के द्वारा उठाई जाने के योग्य विमल प्रभा नाम की पालकी पर सवार होकर मनोहर नामक महान उद्यान की ओर प्रस्थान किया। वहां पहुंच कर उन्होंने दो दिन के लिए आहार का त्याग कर फाल्गुन कृष्ण एकादशी के दिन प्रात: काल के समय श्रवण नक्षत्र म एक हजार राजाओं के साथ संबम धारण कर लिया। उसी समय उन्हें चौथा मनःपर्ययज्ञान उत्पन्न हो गया। दूसरे दिन उन्हान भाजन क लिए सिद्धाथ नगर में प्रवेश किया। वहां उनके लिये सुवर्ण के समान कान्ति बाले उस राजा ने भक्ति-पूर्वक आहार दिया जिससे उत्तम बुद्धि उस राजा ने श्रेष्ठ पुण्य और पंचाश्चर्य प्राप्त किये। इस प्रकार छदमस्थ अवस्था के दा कप
चर्य प्राप्त किये। इस प्रकार उदमस्थ अवस्था के दो वर्ष बीत जाने पर एक दिन महामुनि श्रेयांसनाथ मनोहर नामक उद्यान में दो दिन के उपवास का नियम लेकर तम्बूर वक्ष के नीचे बैठे और वहीं पर उन्हें माघकृष्ण अमावस्या के दिन थबण नक्षत्र में सायंकाल के समय केवल ज्ञान उत्पन्न हो गया। उसी समय अनक नामा निकाय के देवों ने उनके चतुर्थ कल्याणक की पूजा की।
भगवान श्रेयांसनाथ, सतहत्तर गणधरों के समूह से घिरे हए थे, तेरह सौ पूर्वधारियों से सहित थे, अड़तालीस हजार दो सौ उत्तम शिक्षक मुनियों के द्वारा पूजित थे, छह हजार अवधिज्ञानियों से सम्मानित थे, छह हजार पाच सौ केवलज्ञान रूपी
थ, ग्यारह हजार विक्रयाऋद्धि के धारकों से सुशोभित थे, छह हजार मनः पर्ययज्ञानियों से युक्त थे, और पांच हजार मुल्य दिया स सवित थ । इस प्रकार सब मिलाकर चौरासी हजार मूनियों से सहित थे। इनके सिवाय एक लाख बीस हजार धारण आदि आर्यिकाय उनकी पूजा करती थीं, दो लाख श्रावक और चार लाख श्राविकाए उनके साथ थीं, पहले कहे
दावा पार संख्यात तिथंच सदा उनके साथ रहते थे। इस प्रकार बिहार करते और धर्म का उपदेश देते
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