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उसकी स्त्री सत्यभामा उसके दुश्चरित का विचार कर सदा संशय करती रहती थी कि यह किसका पुत्र है ? इधर धरणीजट दरिद्र हो गया । उसने परम्परा से कपिल के प्रभाव को सब बातें जान लीं इसलिए वह अपनी दरिद्रता दूर करने के लिए कपिल के पास गया। उसे आया देख कपिल मन ही मन बहुत कुपित हुया परन्तु बाह्य में उसने उठकर अभिवादन प्रणाम किया । उच्च आसन पर बैठाया और कहा कि कहिये मेरी माता तथा भाइयों का कुशलता तो है न? मेरे सौभाग्य से आप यहां पधारे यह अच्छा किया इस प्रकार पूज कर स्तान वस्त्र प्रासन आदि से उसे संतुष्ट किया और कहीं हमारी जाति का भेद खल न जाये इस भय से उसने उसके मन को अच्छी तरह ग्रहण कर लिया। दरिद्रता से पीड़ित हुआ पापी ब्राह्मण भी कपिल को अपना पुत्र कह कर उसके साथ पुत्र जैसा व्यवहार करने लगा सो ठीक ही है क्योंकि स्वार्थी मनुष्यों की पालन नहीं होता। इस प्रकार अपने समाचारों को छिपाते हए उन पिता-पुत्र के कितने ही दिन निकल गये । एक दिन कपिल के परोक्ष में सत्यभामा ने ब्राह्मण को बहुत-सा धन देकर पूछा कि आप सत्य कहिये। क्या यह आपका ही पुत्र है? इसके दुश्चरित्र से मुझे विश्वास नहीं होता कि यह आपका ही पुत्र है । धारिणी जट हृदय में तो कपिल के साथ द्वष रखता ही था और सत्यभामा के दिये हए सुवर्ण तथा धन को साथ लेकर घर जाना चाहता था इसलिए सब वृत्तान्त सच-सच कहकर घर चला गया सो ठीक ही है क्योंकि दुष्ट मनुष्यों के लिए कोई भी कार्य दुष्कर नहीं हैं।
अथानन्तर उस नगर का राजा श्रीषण था । उसके सिंहनन्दिता और अनिदिन्ता नाम की दो रानियां थीं। उन दोनों को इन्द्र और चन्द्रमा के समान सुन्दर मनुष्यों में उत्तम इन्द्रसेन और उपेन्द्रसेन नाम के दो पुत्र थे। वे दोनों ही पुत्र प्रत्यन्त नम्र थे अतः माता-पिता उनसे बहुत प्रसन्न रहते थे। सत्यभामा को अपने वंश का अभिमान था अत: वह अपने पापी पति के साथ सहवास की इच्छा न रखती हुई राजा की शरण में गई। उस समय अन्याय का घोषणा करने वाला यह बनावटी ब्राह्मण कपिल राजा के साथ ही बैठा था, शोक के कारण उसने अपना हाथ अपने मस्तक पर लगा रक्खा था, उसे देखकर और उस का सब हाल जानकर श्रीषेण राजा ने विचार किया कि पापी विजातीय मनुष्यों को संसार में न करने योग्य कुछ भी कार्य नहीं है। इसलिये राजा लोग ऐसे कुलीन मनुष्यों का संग्रह करते हैं जो प्रादि मध्य प्रौर अन्त में कभी भी विकार को प्राप्त नहीं होते। जो स्वयं अनुरक्त हा पुरुष बिरक्त स्त्री में अनुराग की इच्छा करता है वह इन्द्रनीलमणि में लाल तेज की इच्छा करता है । इत्यादि विचार करते हुए राजा ने उस दुराचारो को शीघ्र ही अपने देश से निकाल दिया सो ठीक हो है क्योंकि धर्मात्मा पुरुष मर्यादा की हानि को सहन नहीं करते । किसी एक दिन राजा ने घर पर प्राये हुए आदित्यगति और अरिजय नाम के दो चारण मुनियों को पडिगाह कर स्वयं आहार दान दिया, पंचाश्चर्य प्राप्त किए और दश प्रकार के कल्पवक्षों के भोग प्रदान करने वाली उत्तरकुरु की प्रायु बांधी। राजा की दोनों रानियों ने तथा उत्तम कार्य करने वाली सत्यभामा में भी दान की अनुमोदना से उसी उत्तरकुरू की प्रायु का बन्ध किया सो ठीक है क्योंकि साधुओं के समागम से क्या नहीं
होता?
अथानान्तर कौशाम्बी नगरी में राजा महावल राज्य करते थे, उनकी श्रीमती नाम की रानी थी और उन दोनों के श्री कान्ता मानो सुन्दरता की सीमा ही थी। राजा महाबल ने वह श्री कान्ता कान्ता को विधि पूर्वक इन्द्रसेन के लिए दी थी। श्रीकान्ता के साथ अनन्तमति नाम की एक साधारण स्त्री भी गई थी। उसके साथ उपेन्द्रसेन का स्नेहपूर्ण समागम हो गया और इस निमित्त को लेकर बगीचा में रहने वाले दोनों भाइयों में युद्ध होने की तैयारी हो गई। जब राजा ने यह समाचार
ना तब वे उन्हें रोकने के लिए गए परन्तु वे दोनों ही कामी तथा क्रोधी थे अतः राजा उन्हें रोकने में असमर्थ रहे। राजा को दोनों ही पुन अत्यन्त प्रिय थे। साथ ही उनके परिणाम अत्यन्त आर्द्र-कोमल थे अतः वे पुत्रों का दुःख सहन में समर्थ नहीं हो सके । फल यह हुआ कि बे विष-पुष्प सूचकर मर गये । वही विष-पुष्प सूधकर राजा की दोनों स्त्रियां तथा सत्यभामा भी प्राणरहित हो गई सो ठीक ही है क्योंकि कर्मों की प्रेरणा विचित्र होती है । घातको खण्ड के पूर्वार्ध भाग में जो उत्तरका नाम का प्रदेश है उसमें राजा तथा सिंह-नन्दिता दोनों दम्पती हुए और अनिन्दिता नाम की रानी आर्य तथा सत्यभामा उसकी स्त्री हुई। इस प्रकार वे सब वहाँ भोगभूमि के भोग भोगते हुए सुख से रहने लगे।
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