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क्रम सौं वृद्धि करै दिन रात, भूषण भूपित निर्मल गात । कला अनेक शास्त्र पढ़ तदा, आप जोग पाई संपदा ॥६३|| पिता सहित सुख श्रीड़ा करे, पूर्व उपाजित मुख व्यौपरं। विविध भोग पृयिवा में सार, भ गहि ते भारीचकुमार ||६४।। एक दिना श्री प्रादि जिनया, देवी नत्य मरण लख भेव । भोग अग राज्यादिक सर्व, तज संबेग उपायों त ।।६५॥ इन्द्र आदि सब राजनि लए, चदि शिविका गोबर में गये । तजि के दूविध परिग्रह भार, ग्रहत भये संयम सुख धार ॥६६॥ तब कक्षादि भूप परवीन, स्वामि भक्ति में तत्तर लोन। चार सहस जानौ सब लोइ. निम्न प्रा के गवक सोइ ।।६७।। तिनके संग मारीचकुमार रायम द्रव्य धरो अविचार । नगन भेष धारी हितकार, स्वामी बधन हिहि विचार ||६८॥ छोड्यौ देह ममत्व निदान, अचल भये प्रभु मेरु रामान । हन्यो कर्म परि को संताप, यारति रौद्र निकन्नन जान ।। ६६ ।। छह महिना पर्यन्त सुलीन, धरौ जोन उत्कृष्ट प्रवीन । लम्बी भुजा दण्ड कर सोच, कायोत्सर्ग ध्यान दह होय ।।७।। तब सव राय कर्म से जोर, पीड़े क्षुधा प्यास सौ योर। जन्म अन्त लो को राप भजी, हवं असमर्थ मुपीछौ तजी ।।७१। वाहें कि प्रभु तो जग भरतार, वनकाय थिर चित अधिकार । जान्यौ जाय न केतै काल, थिर रहि है इहि विधि भूपाल ७२।। हम तो इन समान इहि थान, रहै होइ प्रानन की हान। यान कहा कीजिये अबै, मरण व सुख प्रापत सर्व ।।७३।। इहि प्रकार लिगिन कहि वैन न. नाथ चरणाम्बुज एन। भरतराय के गयसौं तेह, जाच न सके अापने गेह ।।७४॥ ता वन में पापी प्रज्ञान, भरै फल अखाद्य दुख दान। अनगाल्यौ जल पीव दीन, हिय विन गणहीन ||७|| तिनकै संग मारीचकुमार, पीई अधिक परीषह भार। तिन समान किरिया आदरं, अध बिपाकसौं सो व्योपरं ।।७।।
दोहा निन्द्य करम तिनको करत, पालोक्यो वन देव । कहै अरे शठ ! तुम सनो, यो वच शुभकर भेव ।।७।।
चौपाई तपसा भेष मूढ़ ! तुम धरै, अशुभ लिन्य कर्मनको करै। हिंसा है अघ की करतार, नरक तनी माजन अविचार ॥७॥ गही लिंग में पाप जु होय, अरह लिंग में छूट सोय । होय पाप इह लिंग मंझार, वज्रलेप सम सो दुखकार ॥७६।। जिनवर लिंग जगत परधान, सो तुमने छोड़ा अज्ञान । मिथ्यामत गहियो दुखकाय, यात नरक कूप में जाय ।।७।। देव बचन सन अति भयभीत, बुध पूजित मत तज्यो पुनीत । जटा प्रादि धार सब, विविध धेष कोने शठ तवं ।।५१॥ तिनके संग मारीचिकुमार, कटिन मिथ्यात्व उदै अविचार। परिव्राजक दीक्षा उर धरी, जिनबर बेष सबै परिहरी ।।२।। बहत कुशास्त्र रचन परवीन दीरघ संसारी दुख लीन । भंठ बहुत मिथ्यामत वात, सत्यवन्त नहि हिये सुहाय ।।३।।
को पथ दिखला दिया । भील अत्यन्त प्रसन्नताके साथ अपने घरको लौटा । उसने जीवन पर्यन्त उक्त व्रतोंका पालन किया और अन्त में समाधि-मरण करके अतसे उत्पन्न हुए पुग्योदय गे वह भील सौधर्म नामक महाकल्प विमान में महाऋद्धिधारी देव हमा । उसकी प्रायु एक सागरकी हुई । उसने अन्तमहतम नययौवन अवस्थाको धारण किया। उसने अवधि ज्ञानसे अपने पूर्व जन्म का समरत वृत्तान्त जान लिना । इससे जैनधर्म में उसकी निश्चल भक्ति हुई । अत: वह धर्म की सिद्धिवे लिए जिन-जैत्यालयों में जाकर सवदा गवान की पूजा किया करता था। वह अपने परिवार वर्गके साथ आठ प्रकार के द्रव्यों से चेत्य वृक्षाम स्थित तीर्थकरोंकी पूजा कर पश्चात् नन्दीश्वरादि द्वीपों में जाकर केवलज्ञानी गणधरादि महात्माओं की भक्ति के साथ पूजा करता। गणधरों द्वारा दोनों प्रकार के धर्मापदेश सुनकर उसने महान् पृण्यक उपार्जन विया । इस प्रकार वह देव पुण्य उपार्जनकर अपने स्थान को लोटा। वह सदा महल, स्वर्ग और बनोंमें जा-जाकर किन्हीं स्थानोंपर देवांगनाओं का नृत्य देखता, किन्हीं स्थलोपर मनोहर गाने सुनता और कही क्रीड़ा करता था। इस भांति पूर्व पुण्य के प्रभाव से उस समग्र भोगों की उपलब्धि हुई । उसका शरीर सात ऊंचा और सप्त धातुसे रहित था। वह मति, श्रुत अवधि तीनों ज्ञानों से विभूषित था । पाठों ऋद्धियों से युक्त वह देव इन्द्रिय जन्य सुख में निमग्न रहने लगा।
भारत क्षेत्र में कौशल नामका एक देश प्रार्य खण्ड के मध्य भाग में है । उसे पाय जनों को मुक्तिका कारण घतलाया गया है। वहां के उत्पन्न हुए भव्य जन व्रतादि धारण कर कोई मोक्ष प्राप्त करते हैं, कोई नव ग्रेवेयक एवं सोलहवें स्वर्ग में जन्म लेते हैं। कोई जिन देव के भक्त सौधर्मादि स्वर्ग। इन्द्रपद वाच्य भी होते हैं। यही नहीं, यहां के लोग सुपात्रको दान देने के कारण भोगभमि में उत्पन्न होते हैं और कोई-कोई तो पूर्व विदेहमें जन्म धारणकर राज्य-लक्ष्मीका उपभोग करते हैं । इस स्थानपर संसार