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चौपाई दंपति अधिक पुण्य परताप उद्यत मनहु भान जनु माप जगत भोग उपभोग अनेके, भुगत एक घरमसों टेक ॥११५॥ इहि विधि नृप न निज धान, और कथा अब सुनहु निदान धर्म तस्वर पूरण भयो, सो फल धानि परापत भयौ ।। ११६|| नगरी रचना के लिये इन्द्र का कुबेर को प्राज्ञा देना ।
परि छन्द
सौधर्म इन्द्र इमि कहउ ऐन, तुम धनद सुनह मुझ त हे भरत सेत कुंदल पुरेश, सिद्धारय नृप मन्दिर तह रचउ नम्र नाना प्रकार, अर करहु रत्म वर्षा अपार । सब जीव ठिक्क तावद्द एव, निज अन्य सुक्ख दाइक्क तेव ॥ ११६ ॥ प्रदेश सुनो जब जक्ष ईश, ले हुकुम तुरत नायौ जु शीस । मनभाव दुगुन नहि किय विलंब, नरलोक आय पहुंच्यौ सुलंब ॥ १२०॥
बंग
महेश
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अच्युत सुरेश सो रहें नाम, तमु कायु रही, छह मास जाम ।। ११७।। श्री वर्धमान अन्तिम जिनेश, तिनके सुत हू है जग महेश ।। ११८ ॥
नगरी रचना वर्णन
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बारह भोजन रच गय सब हेमसदन मनिचित्त अग्र बहू कोट जु गिरदाकार जोइ चहुंदिन दरवाजे चार सोइ ।।१२१|| तह गोपुर की छबि अधिक जास, खाई गम्भीर जलभरी तास वन उपवन की शोभा श्रपार, मो वरनत होय सु श्रुति श्रवार ।। १२२ ।। आने न राव रंक को जयकार शब्द चहुं ओर होइ नृपभवन रत्न वर्षा करत, मानौं जलधार उलंघ पंत ॥ १२३॥ ति प्रति ही साढ़े तीन कोट, पट मास च नव घरा जोड़ उद्योत नाहि सा सुभान, उपमा अनूप वरनं महान ।। १२४ ।। गृहमन्दिर जिततित रत्नराश, दुख विपति दई पुरते निकाश । नृप आँगन कल्पद्रुम बिद्याल, तह रत्नवृष्टि वरसे रसाल ।। १२५॥ वह फैल रही दशदिशि सुगंध बहु पुरजन मन बाढ्यो अनन्द । नरनार नगर निज सदन देख, धन कंचन पूरन प्रति विशेख ॥। १२६ ।। मन विसमय घरघर सत्र निहार, यह कवन पुन्य पुर में विचार । तब कहिय भव्य प्राश्चर्य कोय, अंतिम जिन यह अवतार होय ।। १२७ ।। कीनो कुबर पुर में प्रकाश, उन र हेम ऊचे श्वास | जिनराम धर्म श्रागमन जान, इन कियो महोत्सव सुक्ख खान ।। १२८ ।। मिथ्या मत रत जे सर्व मूढ़, जिन धर्म ठिक्कता गही गूढ़ जैसे रजनी तम उदित मान, नसि जाय एक छिन में महान् ।। १२६ ।।
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चौपाई
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घर्मरत्न राय सुख करतार जग में प्रचट करत भवपार धर्म सुफल नहि दो कोय, दाईक मोस पंथ नर लोय ॥१३०।। होद धर्म सो पुत्र सुपुत्र, भव भव करता धर्म पवित्र तीर्थकर पद प्राप्त होई, महा सम्पदा निज गृह जोइ ॥ १३१ सुख सों रहें सदा जिन तात, कारज धर्म विचारं गात । आदि श्रहिंसा लक्षण है, पंच अणुव्रत नित्रं ग ॥१३२॥
प्रातः काल के समय समभाव रखने वाले कोई श्रावक तो सामायिक करते हैं, जिससे कर्मरूपी वन जलकर राख हो जाते हैं। कितने ही भव्यजन शय्या से उठते ही लक्ष्मी के सुख को प्रदान करने अर्हतादि पंच परमेष्ठी को नमस्कार रूप मंत्र का पाठ आरम्भ करते हैं। दूसरे महाबुद्धिमान लोग तत्वों का स्वरूप आनकर मन को रोककर कर्मनाश के लिए सुख का समुद्र धर्म का ध्यान करते हैं। कोई मोक्ष प्राप्ति के उद्देश्य से शरीर से ममता को स्याग कर ज्युस तप को धारण करते हैं यह संप समग्रकमों का नाशक और मोक्ष का सर्व श्रेष्ठ साधन है। इस प्रकार शुभ भावों से युक्त सज्जन गण प्रभा काल में धर्म ध्यान में सलंग्न हो जाते हैं।
जिस प्रकार जिनदेव रूपी सूर्य के उदित होने पर मिथ्यातम प्रभा रहित हो जाते हैं, उसी प्रकार सूर्य के उदय होने पर तारागणों के साथ चन्द्रमा प्रभाहीन हो गया । जिस तरह ग्रर्हत रूपी सूर्योदय से भेषधारी रूपी चोर भाग जाते हैं, ठीक इसी प्रकार श्राज के सूर्योदय से चोर यत्र-तत्र भाग गये। जिस तरह जिनवाणी के प्रकाश से अज्ञान रूपी अन्धकार का विनाश हो जाता है, उसी तरह सूर्य ने अपनी किरणों से विश्व के तिमिर का नाश कर दिया ।
बन्दी जनों का मंगल गान जारी था। वे कहते जाते थे माता ! जिस प्रकार शुद्ध ज्ञान रूपी किरणों से सीनाथ भगवान श्रेष्ठ मार्ग और पदार्थों का स्वरूप ज्ञान कराते हैं, इसी प्रकार यह सूर्य अपनी किरणों से सब पदार्थों का प्रकाश कर रहा
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