________________
1
जिन शासन को सदा विचार, मिथ्याबत जाने न लगार दर्शन त तपस चल गये तपमी रूम कुर्मी भये पाठजन मुनिके सन्मुख पावे ज्यों प्रसूत पशु मारन धावं कुमत कुग्रन्थ लोप सब करै ज्ञान ध्यान तप नित विस्तरं । जैन शास्त्र परकाश सदा सो प्रभावना अंग हि जदा ॥१६८॥ दरवान गुन ये अष्ट अनूप, महा सवल नाशक परिरूप स्वर्ग मुक्ति को कारन यही बेर गैर भव धारे नहीं ।। १६६ ।।
J
I
सम्यग्ज्ञान निरूपण
पवन आठ ज्ञानके संग, व्यंजनोजित प्रथम उत्तंग चौथो कालाध्ययन जानिये, उपध्यान पंचम मानिये बहुमान त ग्राम जान, ज्ञान अंग ये आठ प्रमान
अपर ग्रन्थ को लोग हि करे, उपगूहन यंग हि विस्तरं ।। १६५ || तिनकी संबोधे पिर लावे, स्थितीकरण रह मंत्र कहावे ॥१६६॥ धर्म जष्टि सीता मन हर्न सो बात्सल्य संग चित गर्ने ।। १६७॥
7
दूज अर्थ समग्र वान तीजी शब्दार्धक पहिचान ।।१७० ।। विनय सहित पस्टम गुन रमी, गुरु अनि भनी सातमी ||१७१।। इनके भेद बहुत प्रकार, श्रागममैं वरनों निरघार ॥ १७२ ॥ सम्यक् चारित्र निरूपण
व चारित्र त्रयोदश जब जो पालहि मुनि को पूरण चारित पार
पहि सावद्य । सो कहिये यह देश चरित, कलौ गृहीपद को प्रति नित्त ॥ १७३॥ करनों तप कल्याण मार। यह रत्य न व्यवहार पाले जो आवक गुणधार ।। १७४।।
दोहा
ये पन किरिया विविध पालै श्रावक होइ । षोडश स्वर्ग प्रजंत लौं, कहै इन्द्र पद सोइ ।। १७५ ।।
अथ यति धर्म का वर्णन
चौपाई
तीर्थंकर निरग्रन्थ पद धय, मोख पन्थ साधन को कर्यो । तेहि भांति दियो उपदेश, पुनर उक्ति भय कह्यो न शेष ॥ १७६॥। aa far बाहि ग्रन्थ जो कही, चौदह ग्राभ्यंतर हैं सही। इनमें तिल तुप राखँ कोई, तो भी मुनिपद सिद्धि न होई ॥। १७७ ।। भावलिंग ऐसी विधि ठान, द्रव्यलिंग है अपर बखान || १७८ ।। सो कबहूं न लहैं शिव-सीव, भ्रमं जगत दुख सह अतीव ॥ १७६॥ वैसे मूनि जिनलिंग हि विना गोल न पा भव भटकता ॥ १८०॥ धन्य धन्य जग को दर्द पीठ, धन्य धन्य शिव सम्मुख बीठ || १८१ ।। या साधे मुक्तिपद खेरा, जती धर्म है बहु सुख हेत ।।१८२॥
मुनि बिन हैं नहीं निर्वान अचल सासुतं मुख्य निधान । परिग्रहवंत मुनीपद कहैं, घर तिनके बहु जनपद गर्दै दम भाग उदय नहीं कोय, मांगन न सीरी कवहूं होम धन्य धन्य साधु महान, भोग हमें आतम थिति ज्ञान वनवास वसन्त, ऐसे मुनिमह वन्दन वन्त
।
॥
तजी प्राश
अहिंसा यदि पांच महाव्रत मंद पांच समितियां पंचेन्द्रिय-विजय र्थात् विषयोंकी ओर अपनी इन्द्रियों को न जाने देना, केशलोंच, सामायिक इत्यादिपटश्यक कर्म, नग्न, स्नान- परिस्याग, भूमिशयन, दन्त पावन परिवर्तन एक समय भोजन एवं राग हीन सड़ ही बड़े भोजन करना इत्यादि अट्ठाईस मूलगुणका नाम मुनि धर्म है। इन सम्पूर्ण मूल गुणांका सदैव पालन करते रहने चाहिये । प्राण विसर्जनका भी यदि समय उपस्थित हो जाय तो भी इनका परित्याग कदापि नहीं करना चाहिये । क्योंकि इनके द्वारा तीनों लोककी सुख सम्पदाएं प्राप्त हो जाती हैं मुनियों के उत्तम गुणों में परिषहों का जीतना, आतापन, आदि अनेक तप, वहुत उपवास, मौन धारण, इत्यादिकी गणना की गयी है। योगियों को उचित है कि प्रथम उत्तमता पूर्वक निर्दोष होकर मूलगुणों को पालन करें और बाद में उतर गुणों को। योगियों के धर्म के लक्षण दश हैं उत्तम क्षमा माई, सार्जन, सत्य, शौच, यम, तप त्याग, थाकिचन और ब्रह्मचर्य से धर्मों के उत्पत्तिस्थान हैं। भव्यजीवों के लिए उत्तर गुणों ए पूर्ववत दश लक्षण धर्मो के द्वारा मूल गुण से वर्तमान भव में ही मोक्ष को प्रदान करने वाला परमोत्तम धर्म है। इसी के द्वारा सभी मुनीश्वर सिद्धि एवं तीर्थंकर की सुख सम्पत्ति को चिरकाल तक भोगकर अन्त में मोक्ष पदवी को प्राप्त करते हैं। धर्म के समान इस
५३०