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करने के समस्त भवों में उत्पन्न हुए पाप क्षण भर में नष्ट हो जाते हैं। इसके द्वारा इन्द्र चक्रवर्ती को विभूतियां तो क्या मोक्ष तक के अपूर्व सुख प्राप्त होते हैं। मुनिराज की बातें सुनकर वे कन्यायें कहने लगीं-मुनिराज ! इस व्रत के पालन के लिए कौन-कौन से नियम हैं और प्रारम्भ में किसने इस व्रत का पालन किया जिसे सुनिश्चित फल की प्राप्ति हुई। प्रत्युत्तर में मुनिराज ने कहा-पुत्रियों, इस व्रत का नियम सुनो। सुनने मात्र से ही मनुष्य को उत्तम सुख प्राप्त होता है। मोक्ष सख शप्त होता है । मोक्ष सुख प्राप्त करने वाले भव्य लोगों को यह व्रत भाद्रपद और चैत के महीनों में शुक्ल पक्ष के अन्तिम दिनों में करना चाहिए। उस दिन शुद्ध जल से स्नान कर धूले हए शुद्ध वस्त्र पहनना चाहिए और मुनिराज के समीप जाकर तीन दिन के लिये शीलवत (ब्रह्मचर्य) धारण करना चाहिए । इसके अतिरिक्त मन, वचन, काय, की शुद्धतापूर्वक अष्टोपवास करना चाहिए। क्योंकि प्रोषध पूर्वक उपवास ही मोक्षफल को देने वाला है। इससे समस्त कर्म नष्ट हो जाते हैं। यदि इस प्रकार उपवास करने की शक्ति न हो तो एकान्तर अथात् एक दिन बीच का छोड़कर उपवास करना चाहिये । इस व्रत को जैन विद्वानों ने बड़ी महत्ता देकर स्वर्ग फल देने वाला बतलाया है। यदि ऐसी भी शक्ति न हो तो शक्ति अनुसार ही करें। इन तीनों दिन जैन मन्दिर में ही शयन करें। साथ ही वर्द्धमान स्वामि का प्रतिबिम्ब स्थापित कर इक्षरस, दध, दही, घी और जल से पूर्ण कम्भों से अभिषेक करना चाहिए। इसके बाद मन बचन और काय को स्थिर कर चन्दनादि अष्ट द्रव्यों से भगवान की पूजा करें। पुनः सर्वज्ञदेव के मुंह से उत्पन्न सरस्वती देवी की पूजा तथा मुनिराज के चरणों की सेवा करें। कारण गरु पूजा ही पाप रूपी वृक्षों को काटने के लिए कुठार स्वरूप है। वह संसार समुद्र में पड़े हुए जीवों को पार कर देने के लिए नौका के तुल्य है । उस समय मन को एकाग्रकर भक्ति के माथ तीनों समय सामायिक करना चाहिए। ये सामायिक पाने वाले कर्मों को रोकने में समर्थ होते हैं। शुद्ध लवंग पुष्पों के द्वारा एक सौ पाठ बार अपराजित मंत्र का जाप और श्री वर्द्धमान स्वामी की सेवा करनी चाहिए। जैनशास्त्रों में श्री बर्द्धमान स्वामी के पांच नाम बतलाये गये हैं--महावीर, महाधीर सन्मति. वर्द्धमान और बीर समस्त नामों का स्मरण करते हुए तीन प्रदक्षिणा देकर विद्वानों को अर्घ देना चाहिए। व्रत पालन करने वालों को उन दिनों उनकी कथायें सुननी चाहिये, जिन्होंने उक्त व्रत का पालन कर स्वर्ग और मोक्ष की प्राप्ति की है। चित्त को स्थिर कर श्री अरहतदेव का ध्यान करना अत्युत्तम है, कारण उनके ध्यान से प्रेसठ शलाकारों के पद प्राप्त होते हैं । रात्रि को पृथ्वी पर शयन तथा तीर्थदर आदि महापुरुषों की स्तुति करनी चाहिए। जिनधर्म की प्रभावना इन्द्रियों को वश में करने वाली हैं। इसके द्वारा भव्यजीव भवसागर से पार उतरते रहते हैं। अतएव प्रत्येक व्यक्ति का कर्तव्य होता है कि वह प्रभावना करे। लब्धिविधान व्रत तीन दिनों तक बराबर करते रहना चाहिये । वह कर्म नाशक एवं इच्छित फल देने वाला है । यह व्रत तीन बर्ष तक रहना चाहिए। इसके बाद उद्यापन क्रिया करे। उद्यापन के लिए एक सुभव्य जिनालयका निर्माण कराये, जो हर प्रकार से शोभायुक्त हो। वह पापनाशक और पुण्यराशि का कारण होता है। उक्त जिनालय में श्रीरा स्वामी की सुन्दर प्रतिमा विराजमान करनी चाहिए जो आपत्ति रूपी लतामों को नष्ट करने वाली है। इस प्रकार मन काय से शद्ध होकर शान्ति विधान करना चाहिए। इसके लिए चावलों के एक सौ पाठ कमल निर्मित करे और उस पर मर दीप रखे। श्री वर्द्धमान स्वामी के जिनालय में सुगन्धित जल से पूर्ण सुवर्ण के पांच कलश देने चाहिये। सोने के पानी में रखे हा पांच तरह के नैवेद्य से उन कमलों की पूजा करे । साथ ही भ्रमरों को विमोहित करने वाला सुगन्धित द्रव्य-चन्दन केसरादि जिनालय में समर्पित करे। भगवान की प्रतिमा के लिये सुवर्ण का सिंहासन प्रदान करे, जिससे वह अरहंत देव के चरण कमलों की कांति से सदैव प्रकाशित होता रहे। एक भामंडल' भी प्रदान करे। वह सोने का बना हुमा हो और जिसमें रत्न जडे हों। जिसकी कांति सूर्य मंडल के प्रकाश को क्षीण कर देती हो। भगवान के कथनानुसार शास्त्र लिखा कर समर्पित करे, जिसे श्रवण कर लोग कबद्धि रो अन्धे और बधिर न रह जाय । सम्यग्दर्शन, समयज्ञान और सम्यक्चारित्र से उत्तम पात्रों को दान देना चाहिए, जिन्हें शत्रु मित्र सब समान दीखते हों । जो देश व्रत धारक हैं। वे मध्यम पाथ कहलाते हैं और जो असंयत मगर दष्टि है, वे जघन्य हैं। उन्हें भोजन कराना चाहिए और भोग संपत्ति लाभ की आकांक्षा से दान देना चाहिए। पात्रदान अमन के तल्य होता है। मिथ्यादष्टि, मिथ्याज्ञान और मिथ्याचारित्र को धारण करने वाले, फिर भी हिंसा का जिन्होंने त्यागकर दिया है। बे कुपात्र हैं एवं जिन्होंने न तो चारित्र धारण किया और न कोई व्रत किया, बे हिंसक मिथ्यादष्टि जीव अपात्र कले जाते हैं। अयोग्य क्षेत्र में बोए हुए बीज की तरह इन्हें दिया हुआ दान नष्ट हो जाता है अर्थात् कूभोग भमिको उपलब्धि होती है। जिस प्रकार नीम के वृक्ष में छोड़ा हुआ जल कड़वा ही होता है। तथा सर्प को पिलाया हा दध विषही होता है, उसी प्रकार अपात्र को दिये हुए दान से विपरीत फल की प्राप्ति होती है। अर्थात् बह दान व्यर्थ चला जाता है। साथ ही प्रापि कामों के लिए भक्ति के साथ शुद्ध सिद्धान्त को पुस्तके देनी चाहिए। उन्हें पहनने के लिए बस्त्र तथा पोछी, कमंडलू देने चाहिए। पाशाविकानों को ग्राभरण, कीमती वस्त्र और अनेक नारियल समर्पित करें। जो स्त्री-पुरुष दीन और दुर्बल हैं-दोन हैं
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