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देते हैं, वे विष खाकर प्राण की रक्षा चाहते हैं । अथवा जो लोलुपी मनुष्य जीवों की हत्याकर उनका मांस खाते हैं, वे महादुःख देने वाली नरकात में उत्पन्न होते हैं। जीवों को हिसा करने वाले को मेरू पर्वत के समान नर्क के दुख भोगने पड़ते हैं। न तो छाछ से धो निकाला जा सकता है न बिना सूर्य के दिन हो सकता है. न लेप मात्र में मनुष्य की क्षुधा मिट सकती है, उसी प्रकार हिंसा के द्वारा सुख प्राप्ति की प्राशा करना दुराशा मात्र है। प्राणियों पर दया करने वाले मनुष्य युद्ध में, वन में नदी एवं पर्वतों पर भी निर्भय रहते हैं। परहिसकों की आयु प्रति अल्प होती है। या तो वे उत्पन्न होते ही मर जाते हैं, या बाद में किसी समुद्र नदी आदि में डूबकर मृत्यु को प्राप्त होते हैं। इसी प्रकार असत्य भाषण से भी महान पाप लगता है, जिसके पापोदय से नरकादि के दुख प्राप्त होते हैं। यद्यपि यश बड़ा पानन्द दायक होता है, पर मसत्य भाषण से वह भी नष्ट हो जाता है। असत्य विनाश का घर है, इससे अनेक विपत्तियां आती हैं । यह महापुरुषों द्वारा एकदम निन्दनीय है एवं मोक्ष मार्ग का अवरोधक है। अतएव प्रात्मज्ञान से विभूपित विद्वान पुरुषों को चाहिए कि वे कभी असत्य का आश्रय न लें। देवों को आराधना करने वाले सदा सत्य बोला करते हैं । सत्य के प्रसाद से विष भी अमृत के तुल्य हो जाता है। शत्रु भी मित्र हो जाते हैं एव सर्प भी माला बन जाता है। जो लोग असत्य भाषण के द्वारा सद्धर्म प्राप्ति की आकांक्षा करते हैं, वे बिना अंकूर रोपे ही धान्य होने की कल्पना करते हैं। बुद्धिमान लोगों को चाहिए कि वे हिंसा और असत्य के समान चोरी का भी सर्वथा परित्याग कर दें । चोरी पुण्य-लता को नष्ट करने वाली तथा आपत्ति की वृद्धि करने वाली होती है। चोर को नरक की प्राप्ति होती है, वहां छेदन-ताड़न आदि विभिन्न प्रकार के दुख भोगने पड़ते हैं। चोर को सब जगह सजा मिलती है, राजा भी प्राण दण्ड की आज्ञा देता है तथा अनेक प्रकार के कष्ट सहन करने पड़ते हैं । पर जो पुरुष चोरी नहीं करता, उसे जन्म-मृत्यु के बन्धन से मुक्त करने वाली मोक्ष रूपी स्त्री स्वयं स्वीकार कर लेती है। चोरी का परित्याग कर देने से संसार की सारी विभूतियां, सुन्दरी स्त्रियां एवं उत्तम गति की प्राप्ति होती है । जो लोग चोरी करते हए सूख की प्राकांक्षा करते हैं, वे अग्नि के द्वारा कमल उत्पन्न करना चाहते हैं। यदि भोजन कर लेने से अजीर्ण का दूर होना बिना सूर्य के दिन निकलना और बालू पेरने से तेल का निकलना सम्भव भी हो तो चोरी से धर्म की प्राप्ति कभी सम्भव नहीं हो सकती। शीलवत के पालन से चारित्र को सदा वृद्धि होती रहती है, नरव प्रादि के समस्त मार्ग बन्द हो जाते और व्रतों की रक्षा होती रहती है, यह व्रत मोक्ष रूपी सुख प्रदान करने वाला है। जो लोग शीलवत का पालन नहीं करते, वे संसार में अपना यश नष्ट करते हैं।
ब्रह्मचर्य पालन के प्रभाव में सारी सम्पदायें नष्ट हो जाती हैं और अनेक प्रकार की हिंसाय होती हैं। जोशील नत का यथेष्ट पालन करते हैं, वे स्वर्गगामी होते हैं । शील व्रत का इतना प्रभाव होता है कि अग्नि में शीलता आ जाती है, शत्र मित्र बन जाते हैं तथा सिह भी मृग बन जाता है । जिस प्रकार लवण के बिना व्यंजन का कोई मूल्य नहीं, उसी प्रकार शीलवत के अभाव में समस्त व्रत व्यर्थ हो जाते हैं । इसी शीलबत का पालन करने वाले सेठ सुदर्शन की पूजा अनेक देवों ने मिलकर की थी। परिग्रह पापों का मूल है। उससे परिणाम कलुषित हो जाते हैं और वह नीति दया को नष्ट करने वाला है । संसार के समस्त अनर्थ इसी परिग्रह द्वारा सम्पन्न हुया करते हैं । यह धर्मरूपो वक्ष को उखाड़ देता है और लोभरूपी समुद्र को बढ़ा देता है । मनरूपी हंसों को धमकाता है और मर्यादा रूपी तट को तोड़ देता है। क्रोध, मान, माया, आदि कषायों को उत्पन्न करने वाला परिग्रह ही है । वह मार्दव (कोमलता) रूपी बायु को उड़ा देने के लिए वायु सरीखा है और कमलों को नष्ट करने के लिए तुपार के समान है। यह समस्त व्यसनों का घर; पापों को खानि और शुभध्यान का काल है, इरो कोई भी बुद्धिमान ग्रहण नहीं कर सकता । जैसे प्राग, लकड़ी से तृप्त नहीं होती, देव भोगों से तृप्त नहीं होते और उनकी आकांक्षा बढ़ती ही जातो है; उसी प्रकार अपार धन राशि रो तृप्त जो लोग परिग्रह रहित हैं, वे हो वस्तुत: सर्वोत्तम हैं। वे पुण्य संचय के साथ धर्मरूपी वृक्ष उत्पन्न करते हैं और वैसे ही बे धर्मात्मा जैनधर्म का प्रसार करते हैं। इस प्रकार मुनिराज लोग अहिसा, सत्य अस्तेय, ब्रह्मचर्य, और अपरिग्रह इन पांचों व्रतों का पूर्ण रीति मे पालन करते हैं और ग्रही अणु रूप से पालन करते हैं जो मुनिराज हिंसा आदि पापों से सदा विरक्त रहते हैं तथा शरीर का मोह नहीं करते, उन्हें शीघ्र ही मोक्ष की प्राप्ति हो जाती है। जिन्होंने इन्द्रिय विषयक ज्ञान को त्याग दिया है तथा मन, वचन, काय को वश में कर लेने को जिनमें शक्ति है, दे दी महापय मनि कहलाने के अधिकारी होते हैं । जिन्होंने सर्व परिग्रहों का सर्वथा परित्याग कर दिया है, उन्हें ही मोक्ष रूपी स्त्री स्वीकार करती है। शुभ ध्यान में निरत मुनिराज ईर्या, भाषा, एषणा, प्रादान निक्षषण और उत्सर्ग इन पांचों समितियों का पालन करते हैं तथा उन्हीं के अनुसार चलने का नियम बना लेते हैं । जिस प्रकार सूर्य के उदय होते ही अन्धकार का सर्वथा विनाश हो जाता है, उसी प्रकार तपश्चरण के द्वारा अंतरग एवं बहिरंग दोनों प्रकार के कर्मों का समुदाय बिनष्ट हो जाता है। पर बिना तपश्चरण किये कर्म के समूह नष्ट नहीं होते। वर्षा के प्रभाव में जिस प्रकार खेती नहीं होती, उसी प्रकार बिना उत्तम