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"धर्मद्वयं त्रिविधकाल समग्नकर्म, षड द्रव्यकाय सहिताः समयश्च लेश्याः तत्वानि संयमगतीसहिता पदार्थ
रंगप्रवेदमनिशव चास्ति कायम।" धर्म के दो भेद कौन-कौन से हैं। वे तीन प्रकार के काल कौन हैं, उनमें काय सहित द्रव्य कौन हैं, काल किसे कहते हैं, लेश्या कौन-कौन-सी सौर कितनो हैं। तत्व कितने और कौन-कौन हैं, संयम कितने है, गति कितनी और कौन हैं तथा पदार्थ कितने और कौन हैं, श्रुतज्ञान, अनुयोग और सास्ति काय कौन और कितने हैं, यह आप बतलाइये । बूढ़े के मह से श्लोक सुनकर गौतम को बड़ी ग्लानि हुई। उसने मन में ही विचार किया कि, मैं इस श्लोक का अर्थ क्या बतलाऊं। इस वृद्ध के साथ वाद-विवाद करने से कौन-सी लाभ-की प्राप्ति होगी। इससे तो अच्छा हो कि इसके गुरु से शास्त्रार्थ किया जाय। मौतम ने बड़े मभिमान से कहा-चलरे ब्राह्मण। अपने गुरु के निकट चल । वहीं पर इस विषय की मीमांसा होगी। वे दोनों विद्वान सबको साथ लेकर वहां से रवाना हुए। मार्ग में, गौतम ने विचार किया जब इस वृद्ध के प्रश्न का उत्तर मुभ से नहीं दिया गया, तो इसके गुरु का उत्तर कैसे दिया जायेगा । वह तो अपूर्व विद्वान होगा। इस प्रकार से विचार करता हुआ गौतम समयशरण में पहुंचा। इन्द्र को अपनी कार्य सिद्धि पर बड़ी प्रसन्नता हुई । सत्य है, सिद्धि हो जाने पर किसे प्रसन्नता नहीं होती। अर्थात् सबको होती है। वहां मानस्तम्भ अपनी अद्भुत शोभा से तीनों लोकों को प्राश्चर्य में डाल रहा था। उसके दर्शन मात्र से ही गौतम का दर्प चूर्ण-विचूर्ण हो गया । उसने विचार किया कि जिस गुरु के सन्निवाट इतनी विभूति विद्यमान हो, वह क्या पराजित किया जा सकता है, असम्भव है। इसके बाद वीरनाथ भगवान का दर्शन कर बह गौतम उसको स्तुति करने लगा.. प्रभो ! भाप कामरूपी योधानों को परास्त करने में निपुण हैं । सत्पुरुषों को उपदेश देने वाले हैं । अनेक मुनिराजों का समदाय यापकी पूजा करता है। आप तीनों लोकों के तारक और उद्धारक हैं आप कर्म-शत्रुओं को नाश करने वाले हैं तथा लोक्य के इन्द्र प्रापकी सेवा में लगे रहते हैं। ऐसी विनम्र स्तुतिकर गौतम, भगवान के चरणों में नत हुया। इसके पश्चात वह ऐहिक विषयों से विरक्त हो गया। कालान्तर में उसने पांच सी शिष्य मण्डली तथा अन्य दो भ्राताओं के साथ जिन-दीक्षा लेली। सत्य है, जिन्हें संसार का भय है, जो मोक्ष रूपी लक्ष्मी के उपासक हैं, वे जरा भी देर नहीं करते । धी बीरनाथ भगवान के समयशरण में चारों ज्ञानों से विभूषित, इन्द्रभूति, वायुभूति, अग्निभूत यादि ग्यारह गणधर हुए थे। उन्होंने पूर्वभव में लधिविधान नामक व्रत किया था, जिसके फल स्वरूप वे गणधर पद पर आसीन हुए थे। दूसरे लोग भी, जो इस व्रत का पालन करते हैं उन्हें ऐसी ही विभूतियां प्राप्त होती हैं । इसके बाद भगवान की दिव्यवाणी उच्चरित होने लगी। मोहांधकार को नाश करने बाली बह दिव्यध्वनि भव्यरूपी कमलों को प्रफुल्लित करने लगी। भगवान ने जोव, अजीव आदि सप्ततत्व, छः द्रव्य पंचारित. काय. जीवों के भेद आदि लोकाकाश के पदार्थों के भेद और उनके स्वरूप बतलाये। समस्त परिग्रहों का परित्याग करने वाले गौतम ने पूर्वपुण्य के उदय से भगवान के समस्त उपदेशों को ग्रहण कर लिया । जैन धर्म के प्रभाव से भव्यों को संगति प्राप्त होती है, उपयुक्त, कल्याण कारक मधुर वचन, अच्छी बुद्धि यादि सर्वोत्तम विभूतियां सहज में ही प्राप्त होती हैं। इस धर्म के प्रभाव से उत्तम संतान की प्राप्ति और चन्द्रमा तथा बर्फ के समान शुभकाति होता है । धम के प्रभाव से ही बड़ो विभूतियां और अनेक सुन्दरी स्त्रियां प्राप्त होती हैं और सुरेन्द्र, नगेन्द्र और नागेन्द्र के पद भी सुलभ हो जाते हैं।
इसके पश्चात मुनिदेव मनुष्य प्रादि समस्त भव्य जीवों को प्रसन्न करते हुए महाराज श्रेणिक ने भगवान से प्रार्थना की कि, हे भगवान ! हे वीर प्रभो ! उस धर्म को सुनने की हमारी प्रबल इच्छा है कि जिससे स्वर्ग और मोक्ष के सख सहजसाध्य हैं। माप विस्तार पूर्वक कहिये। उत्तर में भगवान ने दिव्यध्वनि के द्वारा कहा-राजन् ! अब मैं मनि और गदो दोनों के धारण करने योग्य धर्म का स्वरूप बतलाता हूं। तुझे ध्यान देकर सुनना चाहिए । संसार रूपी भव समुद्र में उबतेका जीवों को निकाल कर जो उत्तम पद में धारण करादे, उसे धर्म कहते हैं । धर्म का यही स्वरूप अनादि काल से जिनेन्द्रदेव कहते चले पाये हैं। सबसे उत्तम धर्म अहिसा है। इसी धर्म के प्रभाव से जीवों को चक्रवर्ती के सुख उपलब्ध होते हैं । प्रतएव समस्त संसारी जीवों पर दया का भाव रखना चाहिए । दया अपार सुख प्रदान करने वाली एवं दुख रूपी वृक्षों को काटने के लिए कहार के तुल्य होती है। सप्त व्यसनों की अग्नि को बुझाने के लिए यह दया ही मेध स्वरूप है । यह स्वर्ग में पहुंचाने के लिए सोपान और मोक्ष रूपी संपत्ति प्रदान करने वाली है। जो लोग धर्म को साधना के लिए यज्ञादि में प्राणियों को हिंसा करते हैं, वे विषले सर्प के मह से अमृत करने की आशा रखते हैं । यह सम्भव है कि जल में पत्थर तैरने लगे, अग्नि ठढी हो जाय, किन्त सिा द्वारा धर्म को प्राप्ति त्रिकाल में भी सम्भव नहीं हो सकती । जो भील लोग धर्म को कल्पना कर जंगल में प्राग लगा