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श्री आदिनाथाय नमोऽस्तु तस्मै, पनोपदिष्टा हट्योगविद्या । विभ्राजले प्रोन्मतराज योग
भारोदुमिच्छोरधिरोहिणीव ॥१०॥ अर्थात- "श्री आदिनाथ को नमस्कार हो, जिन्होंने उस हठयोग विद्या का सर्वप्रथम उपदेश दिया जो कि बहुत ऊंचे राजयोग पर आरोहण करने के लिए नसनी के समान है।"
हश्योग का श्रेष्ठतम रूप दिगम्बर है । परमहंस मार्ग हो तो उत्कृष्ट योगमार्ग है। इसी से 'नारद परिव्राजकोपनिषद, में योगी परमहंसाख्यः साक्षान्मोक्षकसाधनम्' इस बाक्य द्वारा परमहरा योगी को साक्षात् मोक्ष का एक मात्र साधन बतलाया है। सचमुच "प्रजन शास्त्रों में जहाँ कही थी ऋषभदेव-प्रादिनाथ -का वर्णन याया है उनको परमहंसमार्ग का प्रर्वतक बतलाया है।
किन्तु मध्यकालीन साम्प्रदायिक विद्वेष के कारण अर्जन विद्वानों को जैनधर्म से ऐसी चिढ़ हो गयी कि उन्होंने अपने धर्मशास्त्रों में जैनों के महत्वसुचक वाक्यों का या तोष लोप कर दिया अथवा उनका अर्थ ही बदल दिया । उदाहरण के रूप में उपरोक्त 'हठयोग प्रदीपिका के श्लोक में वणित ग्रादिनाथ को उसके टीकाकार 'शिव' (महादेवजा) बताते हैं किन्तु वास्तव में इसका अर्थ ऋषभदेव ही होना चाहिये, क्योंकि प्राचीन 'अमरकोषादि' किसी भी बोष ग्रन्थ में महादेव का नाम 'आदिनाथ' नहीं मिलता। इतके अतिरिक्त यह बात भी ध्यान देने योग्य है कि श्री ऋषभदेव के ही सम्बन्ध में यह वर्णन जैन और अजन शास्त्रों में मिलता है-किसी अन्य प्रावीन मत प्रवर्तक के सम्बन्ध में नहीं कि वह स्वयं दिगम्बर रहे थे और उन्होंने दिगम्बर धर्म का उपदेश दिया था । उस पर 'परमहंसोपनिषद्, के निम्न वाक्य इस बात को स्पष्ट कर देते हैं कि परमहंस धर्म के जैनाचार्य थे
"तदेतद्विज्ञाय ब्राह्मणः पावं कमण्डलु कटिसूत्र कौपीनं च तत्सर्वम् सुविसुज्याथ जातरूपधरश्चरे दात्मानमन्विच्छेद यथाजातरूपधरो निद्वो निष्परिग्रहस्तत्वब्रह्मभार्ग सम्यक संपन्नः शुद्ध मानसः प्राणसंधारणार्थ यथोक्तकाले पंच गहेष करपात्रणायाचिताहारमाहरन् लाभालाभे समो भूत्वा निर्ममः शुक्लध्यानपरायणोऽध्यात्मनिष्ठः शुभाशुभकर्मनिर्मलनपर: परमहंसः पूर्णानन्देवाबोधस्तदब्रह्मोहमस्नोति ब्रह्मप्रणवमनस्मरन् भ्रमर कोटकन्यायेन शरीरत्रयमुत्सृज्य देहत्यागं करोति स कृतकृत्यो भवतीत्युपनिषद् ।"
अर्थात् ऐसा जानतर ब्राह्मण (ब्रह्मज्ञानी) पात्र, कमण्डलु, कटिसव और लंगोटी इन मब चीजों को पानी में विसर्जन कर जन्म समय के वेप को धारण कर अर्थात् बिल्कुल नग्न होकर-विचरण करे और प्रात्मान्वेषण करे। जो यथाजातरूपधारी (नग्न दिगम्बर), निद्वन्द्र, निष्परिग्रह, तत्वब्रह्ममार्ग में भली प्रकार सम्पन्न, शुद्ध हृदय, प्राणधारण के निमित्त यथोक्त समय पर अधिक से अधिक पात्र घरों में बिहार कर कर-पात्र में अयाचित भोजन लेने वाला तथा लाभालाभ में समचित होकर निर्ममत्व रहने वाला, शुक्लध्यान परायण. अध्यात्मनिष्ठ, शुभाशुभ कर्मों के निर्मूलन करने में तत्पर परमहंस योगीपणानन्द का अद्वितीय अनुभव करने वाला यह ब्रह्म मैं हूं. ऐसे ब्रह्म प्रणव का स्मरण करता हग्रा भ्रमरकोटक न्याय से (कीड़ा भ्रमरीका ध्यान करता हया स्वयं भ्रमर बन जाता है, इस नीति से) तीनों शरीरों को छोड़कर देह त्याग करता है, वह कृत्कृत्य होता है, ऐसा उपनिषदां में कहा है।
इस प्रवतरण का प्रायः सारा ही वर्णन दिगम्बर जैन मुनियों की चर्या के अनुसार है : किन्तु इनमें विशेष ध्यान देने यो विशेषण 'शक्लध्यानपरायणः' है, जो जनधर्म की एक खास चीज है। "जैन के सिवाय और किसी भी योग ग्रन्थ में 'शक्लध्यान' का प्रतिपादन नहीं मिलता । पतंजलि ऋषि ने भी ध्यान के शुक्लध्यान आदि भेद नहीं बतलाये। इसलिए योग ग्रन्थों में ग्रादि-योगाचार्य के स्थान में जिन आदिनाथ का उल्लेख मिलता है वे जैनियों के आदि तीर्थकर श्री आदिनाथ से भिन्न और कोई नहीं जान पड़ते।" 'अथर्ववेद के जाबालोपनिषद् (सूत्र ६) में परमहंस संन्यासी का एक विशेषण निर्ग्रन्थ भी दिया है और यह हर कोई
- - - - - - -- -- -- -- - - - - - - - - - .. - १. अनेकान्तवर्ष १. २. “यथा जात रूपधगे निर्ग्रन्थों निष्परिग्रह " इत्यादि-दिमु ।
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