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परिणति है। रागद्वेषमई भावों से प्रेरित होकर वह अपने मन-वचन और काय की क्रिया तद्वत् करता है इसका परिणाम यह होता है कि उस जीवात्मा में लोक में भी हुई पौद्गलिक कम-वर्गणायें आकर चिपट जाती हैं और उनका प्रावरण जीवात्मा के ज्ञान-दर्शन आदि गुणों को प्रकट नहीं होने देता । जितने अंशों में ये आबरण कम या ज्यादा होते हैं, उतने ही अंशों में प्रात्मा के स्वाभाविक गुणों का कम या ज्यादा प्रकाश प्रकट होता है। यदि जीवात्मा अपने निजस्वभाव को पाना चाहता है तो उसे इन सभी कर्म सम्बन्धी आवरणों को नष्ट कर देना होगा, जिनका नष्ट कर देना संभव है।
इस प्रकार जीवात्मा के धर्म-स्वभाव-से घातक उसकं पोद्गलिक सम्बन्ध हैं। जोवात्मा को प्रात्मा-स्वातन्त्र्य प्राप्त करने के लिए इस पर-सम्बन्ध को विल्कुल छोड़ देना होगा। पाथिब संसर्ग से उसे अछूत हो जाना होगा। लोक और ग्रात्मादोनों ही क्षेत्रों में वह एक मात्र अपनी उद्देश्य प्राप्ति के लिए सतत उद्योगी रहेगा। बाहरी और भीतरी सब ही प्रपंचों से उसका कोई सरोकार न होगा । परिग्रह नाम मात्र को वह न रख सकेगा। यथा जातरूप में रह कर वह अपने विभावभई रागादि कषाय शत्रुओं को नष्ट करने पर तुल पड़ेगा। ज्ञान और ध्यान शारत्र लेकर बह कर्म-सम्बन्धों को बिल्कुल नष्ट कर देगा। और तब वह अपने स्वरूप को पा लेगा । किन्तु यदि वह सत्व मार्ग से जरा भी विचलित हुपा और बाल बराबर परिग्रह के मोह में जा पड़ा तो उसका कहीं ठिकाना नहीं । इसीलिये कहागया है कि
बालग्गकोडिमत्तं परिगहगहणं ण होइ साहणां ।
भजेइ पाणिपत्ते दिण्णणं इक्कट्टाणीम्म ॥१७॥ भावार्थ:-बाल' के अग्रभाग---नोक के बराबर भी परिग्रह का ग्रहण साधु को नहीं होता है। वह आहार के लिए भी कोई बरतन नहीं रखता-हाथ ही उसके भोजनपात्र हैं और भोजन भी बह दूसरे का दिया हुआ एक स्थान पर और एक दफे ही ऐसा ग्रहण करता है जो प्रासुक है-स्वयं उसके लिए न बनाया गया हो।
अब भला कहिये, जब भोजन से भी कोई ममता न रक्खी गई दूसरे शब्दों में जब शरीर से ही ममत्व हटा लिया गया तब अन्य परियह दिगम्बर माध में रक्खंगा? उसे रखना भी नहीं चाहिए, क्योंकि उसे तो प्रकृत रूप आत्मस्वातन्त्र्य प्राप्त करना है, जो संसार के पार्थिव पदाथों से सर्वथा भिन्न है। इस अवस्था में वह वस्त्रों का परिधान भी कैसे रख सकेगा ? वस्त्र तो उसके मुक्ति-मार्ग में अर्गला बन जायेगे। फिर वह कभी भी कर्म-बन्धन से मुक्त न हो पायेगा। इसीलिये तत्ववेत्तानों ने साधनों के लिये कहा है कि :
जह जाय स्वसरिसो तिलतुलस मित्तं ण गिहदि हत्तेतु।
जइ लेइ अप्पबहुयं तत्तौ पुण जाइ णिग्गोम् ।। १८।। अर्थात-मनि यथाजातरूप है-जैसा जन्मता बालक नग्नरूप होता है वैसा नग्नरूप दिगम्बर मुद्रा का धारक है-वह अपने हाथ में तिल के तुप मात्र भी कुछ ग्रहण नहीं करता। यदि वह कुछ भी ग्रहण करले तो वह निगोद में जाता है।
परिग्रहधारी के लिए प्रात्मोन्नति की पराकाष्ठा पा लेना असंभव है। एक लंगोटीवत् का परिग्रह के मोह से साध किस कार पतित हो सकता है, यह धर्मात्मा सज्जनों की जानी सुनी बात है। प्रकृित जो कृत्रिमता को सहिति चाहती है तब टी वह प्रसन्न होकर अपने पूरे सौन्दर्य को विकसित करती है। चाहे पैगम्बर या तीर्थकर ही क्यों न हो, यदि वह श्रम में रह रहा है - समाज मर्यादा के आत्मविमुख बन्धन में पड़ा हुआ है तो वह भी अपने आत्मा के प्रकृत रूप को नहीं पा सकता । इसका एक कारण है । वह यह कि धर्म एक विज्ञान है । उसके नियम प्रकृति के अनुरूप अटल और निश्चल हैं। उनमें कहीं किसी जमाने में भी किसी कारण से रचमात्र अन्तर नहीं पड़ सकता है। धर्म विज्ञान कहता है कि आत्मा स्वाधीन और सुखी तब ही हो सकता है जब वह पर-सम्बन्ध, पुद्गल के संसर्ग से मुक्त हो जाये। अब इस नियम के होते हामी पार्थिव बस्त्र-परिधान को रख कर कोई यह चाहे कि मुझे प्रात्मस्वातन्त्र्य मिल जाय तो उसकी यह चाह आकाश-कसम को पाने की प्राशा से बढ़ कर न कही जायेगी? इसी कारण जैनाचार्य पहले ही सावधान करते हैं कि
ण वि सिझई बत्थधरो जिणसासण जइणि होइ तित्थयरो।
णग्गो विमोवखमग्गो सेसा उम्मग्गया सम्वे ॥२३॥ भावार्थ-जिन शासन में कहा गया है कि वस्त्रधारी मनुष्य मुक्ति नहीं पा सकता है, जो तीर्थयार होवे तो वह भी गृहस्थदशा में मुक्ति को नहीं पाते हैं-मुनि दीक्षा लेकर जब दिगम्बर वेप धारण करते हैं तब ही मोक्ष पाते हैं। अतः नग्नत्व ही मोक्षमार्ग है-बाकी सब लिंग उन्मार्ग हैं।
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