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संसार के पाप-पुण्य राईलाई का जिसे मान तक नहीं है, वहीं दिगम्बरख धारण करने का अधिकारी है और चुकि सर्वसाधारण गृहस्थों के लिये इस परमोच्च स्थिति को प्राप्त कर लेना सुगम नहीं है, इसलिये भारतीय ऋषियों ने इसका विधान मुहत्यानी धरण्यवासी साधुयों के लिये किया है। दिगम्बर मुनि ही दिगम्बरस्य को धारण करने के अधिकारी है यद्यपि यह बात जरूर है कि दिगम्बर को मनुष्य का आदर्श स्थिति होने के कारण मानव-समाज के पथ-प्रदर्शक श्री भगवान ऋषभदेव ने गृहस्थों के लिये भी महीने के पर्वदिनों में नंगे रहने की आवश्यता का निर्देश किया था और भारतीय गृहस्य उनके इस उपदेश का पालन एक बड़े जमाने तक करते रहे थे।
इस प्रकार उक्त वक्तव्य से यह स्पष्ट है कि दिगम्बरत्व मनुष्य की आदर्श स्थिति है- प्रारोग्य और सदाचार का वही पोषक ही नहीं जनक है किन्तु माजा संसार इतना पाप-ताप से झुलस गया है कि उस पर एक दम दिगम्बर-रि डाला नहीं जा सकता जिन्हें विज्ञान दृष्टि नसीब हो जाती है, वही अभ्यास करके एक दिन निधिकारी दिगम्बर मुनि के वैष में विचरते हुए दिखाई पड़ते हैं। उनको देखकर लोगों के मस्तक स्वयं झुक जाते हैं। वे प्रज्ञा-पुन्ज और तपो धन लोक कल्याण में निरत रहते हैं । स्त्री-पुरुष, बालक-वृद्ध, ऊंच-नीच, पशु-पक्षी सब ही प्राणी उनके दिव्यरूप में सुख-शांति का अनुभव करते हैं। भलाप्रकृति प्यारी क्यों न हो ? दिगम्बर साधु प्रकृति के अनुरूप है। उनका किसी से द्वेष नहीं - वे तो सब के हैं और सब उनके हैं ये प्रिय और सदाचार की मूर्ति होते हैं। यदि कोई दिगम्बर होकर भी इस प्रकार जिनभावना से युक्त नहीं है तो जैनाकर रर्थक है- परमोद्देश्य से वह भटका हुआ है इस लोक और परलोक दोनों ही उसके नष्ट हैं। इस दिगम्बर नहीं शोभनीय है जहां परमोद्देश्य दृष्टि से पोझल नहीं किया गया है। तब ही तो वही मनुष्य की आदर्श स्थिति है।
(२)
धर्म और दिगम्बरत्व
पाणिपत्तं उवइ परमजिवी रहि । एक्को विमोग्गी सेसा मया समे ||१०||
अर्थात् प्रचेलक - नग्नरूप और हाथों को भोजनपात्र बनाने का उपदेश जिनेन्द्र ने दिया है। यही एक मोक्ष-धर्ममार्ग है। इसके अतिरिवत दोष सब अमार्ग हैं।
धम्मो वत्यु सहावो-धर्म वस्तु का स्वभाव है और दिगम्बरत्व मनुष्य का निज रूप है उसका प्रकृत स्वभाव है । इस दृष्टि से मनुष्य के लिए दिगम्बरत्व में वहां कुछ भेद ही नहीं रहता। सचमुच सदाचार के आधार पर टिका हुआ दिगम्वरत्व धर्म के सिवा और कुछ हो भी क्या सकता है ?
जीवात्मा अपने धर्म को गंवाये हुए है। लौकिक दृष्टि से देखिए, चाहे आध्यात्मिक से जीवात्मा भवभ्रमण के चक्कर में पड़कर अपने निज स्वभाव से हाथ धोये बैठा है। लोक में यह नंगा आया है। फिर समाज मर्यादा के कृत्रिम भ के कारण वह अपने निजरूपनत्वको खुशी-खुशी छोड़ बैठता है। इसी तरह जीवात्मा स्वभाव में सच्चिदानन्दरूप होते हुए भी संसार की माया-ममता में पड़ कर उस स्वानुभवानन्द से वन्चित है। इसका मुख्य कारण जीवात्मा को राग-द्वेष जनित
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१. सागार० अ० ७ व भत्रु० २०५ २०७
"विरडिया नग्गरुई उ तस्स, जे उत्तम
विवज्जासमेई ।
इमे बिसे नत्य परे लिए, दुहओ विसे भिज्जई तत्थ लोए १४६ ।"
उत्तराध्ययन सूत्र व्या० २०
"In vain he adopts nakedness, who errs. about matters of paramount interest, neither this world nor the next will be hi. He is a Loser in both respect in the world."
-Js. It. p. 106
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