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या अयोग्य का त्याग करना ।
(२१) कायोत्सर्ग निश्चित क्रिया रूप एक नियत काल के लिये जिन गुणों की भावना सहित देह में ममत्व को छोड़कर स्थित होना ।
(२२) केशलोंच - दो, तीन या चार महीने बाद प्रतिक्रमण व उपवास सहित दिन में अपने हाथ से मस्तक, दाढ़ी, मूंछ के बालों का उखाड़ना ।
(२३) अचेल वस्त्र, चर्म, टाट, तूप आदि से शरीर को नहीं ढकना और प्राभूषणों से भूषित न होना ।
(२४) स्नान स्नान उबटन-अन्जन लेपन आदि का त्याग ।
(२५) क्षितिशयन - जीव बाधा रहित गुप्त प्रदेश में डण्डे अथवा धनुष के समान एक करवट से सोना ।
(२६) अदन्तधावन पंगुली, नवीन, तृण आदि से दल मल को शुद्ध नहीं करना ।
(२७) स्थितिभोजन- अपने हाथों को भोजन पात्र बनाकर भीत आदि के साथ रहित चार अंगुल के घर से समपाद खड़े
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नाम, स्थापना, द्रव्य, क्षेत्र, काल, भाव- इन छहों में शुभ मग, वचन, काय से आगामी काल के लिए
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रहकर तीन भूमियों की शुद्धता से आहार ग्रहण करना। और
(२८) एक भक्त सूर्य के उदय और मस्तकाल की तीन घड़ी समय छोड़कर एक बार भोजन करना ।
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इस प्रकार एक मुमुक्षु दिगम्बर मुनि के श्रेष्ठ पद को तब ही प्राप्त कर सकता है जब वह उपरोक्त भट्ठाईस मूल गुणों का पालन करने लगे । इनके अतिरिक्त जैन मुनि के लिये और भी उत्तर गुणों का पालन करना आवश्यक है; किन्तु ये अट्ठाईस मूल गुण ही ऐसे व्यवस्थित नियम है कि मुमुक्षु को निर्विकारी और योगी बना है और यही कारण है कि आज तक दिगम्बर जैन मुनि अपने पुरातन वेष में देखने को नसीब हो रहे हैं। यदि यह वैज्ञानिक नियम प्रवाह जैन धर्म में न होता तो अन्य मतान्तरों के नग्न साधुओं के सदृश ग्राज दिगम्बर जैन साधुओं के भी दर्शन होना दुर्लभ हो जाते। दिगम्बर साधु-नंगे जैन साधु के लिये 'दिगम्बर साधु' पद का प्रयोग करना हो हम उचित समझते हैं के उपरोक्त प्रारम्भिक गुणों को देखते हुए जिनके बिना वह मुनि ही नहीं हो सकता - दिगम्बर मुनि के जीवन के कठिन श्रम, इन्द्रिय निग्रह, संयम, धर्मभाव, परोपकारवृति निरूप इत्यादि का सहज ही पता लग जाता है। इस दशा में यदि वे जगद्बंध हो तो धावयं क्या?
दिगम्बर मुनियों के सम्बन्ध में यह जान लेना भी जरूरी है कि उनके (१) आचार्य (२) उपाध्याय और ( ३ ) साधुरूप तीन भेदों के अनुसार कर्त्तव्य में भी भेद हैं। आचार्य साधु के गुणों के अतिरिक्त सर्वकाल सम्बन्धी प्रचार को जानकर स्वयं तद्वत् श्राचरण करे तथा दूसरों से करावे; जैन धर्म का उपदेश देकर मुमुक्षुत्रों का संग्रह करे और उनकी सार सम्भाल रखे । उपाध्याय का कार्य साधु कर्म के साथ-साथ जैन शास्त्रों का पठन-पाठन करना है। और जो मात्र उपरोक्त गुणों को पालता हुआ ज्ञान ध्यान में लीन रहता है, वह साथ है। इस प्रकार दिगम्बर मुनियों को अपने कर्तव्य के अनुसार जीवन यापन करना पड़ता है। [दाचार्य महाराज का जीवन संघ के उद्योत में ही लगा रहता है। इस कारण कोई-कोई याचा विशेष ज्ञान ध्यान करने की नियत से अपने स्थान पर किसी योग्य शिष्य को नियुक्त करके स्वयं साधुपद में आ जाते हैं। मुनि दशा ही साक्षात् मोक्ष का कारण है।
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दिगम्बर मुनि के पर्यायवाची नाम
दिगम्बर मुनि के लिये जैन शास्त्रों में अनेक शब्द व्यवहस हुए मिलते हैं। तथापि जनेतर साहित्य में भी वह एक से अधिक नामों से उल्लिखित हुए हैं। संक्षेप में उनका साधारण सा उल्लेख कर देना उचित है; जिसमे किसी प्रकार की शंका को स्थान न रहे। साधारणतः दिगम्बर मुनि के लिये व्यवहृतन्य निम्न प्रकार देखने को मिलते हैं:
कच्छ, किचन, अचेलक (अमेली), अतिथि समगारी, अपरिग्रही, लोक यायें, ऋषि, गणी, गुरु, जिनसिंगी, तपस्वी, दिगम्बर दिदास, नग्न, निश्चल, निर्बंम्ब, निरागार पाणिपरात्र, भिक्षुक, महावती, नाहण, मुनि, यति, योगी, वातवसन, विवसन, संयमी (संयत), स्थविर, साधु, सन्यस्व, धमण, क्षपणक ।
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