________________
मार्गल
धर्म के इस वैज्ञानिक नियम से कायल संसार के प्रायः सब ही प्रमुख प्रवर्तक रहे हैं, जैसे कि आगे के पृष्ठों में स्त किया गया है और उनका इस नियम- दिगम्बरत्वको मान्यता देना ठीक भी है क्योंकि दिसम्बर के विना धर्म का मूल्य कुछ भी शेष नहीं रहता- वह धर्म स्वभाव रह हो नहीं पाता है। इस प्रकार धर्म और दिगम्बरत्व का सम्बन्ध स्पष्ट है।
fareबरत्व के प्रादि प्रचारक ऋषभदेव
भुवनाम्भोज मार्तवं धर्मामृत पयोधरम् ।
योगि कल्पतरू नौमि देवदेवं वृषध्वजम्। ज्ञानार्णव
दिगम्बरत्व प्रकृति का एक रूप है। इस कारण उसका आदि पीर अन्त कहा ही नहीं जा सकता। वह तो एक सनातन नियम है, किन्तु उस पर भी इस परिच्छेद के शीर्षक में श्री ऋषभदेव जो को दिगम्बरत्व का आदि प्रचारक लिखा है। इसका एक कारण है । विवेकी सज्जन के निकट दिगम्बरत्व केवल नग्नता मात्र का द्योतक नहीं है। पूर्व परिच्छेदों को पढ़ने
से
यह बात स्पष्ट हो गई है । वह रागादि विभाव भाव को जीतने वाला यथा जातरूप है और नग्नता के इस रूप का संस्कार कभी न कभी किसी महापुरुष द्वारा जरूर हुआ होगा। जैनशास्त्र कहते हैं कि इस कल्पकाल में धर्म के यादि प्रचारक श्रीऋपनदेव जी ने ही दिगम्बरस्य का सबसे पहले उपदेश दिया था।
यह ऋषभदेव अन्तिम मनु नाभिराय के सुपुत्र थे और वह एक प्रत्यन्त प्राचीन काल में हुये थे, जिसका पता लगा लेना सुगम नहीं है । हिन्दू शास्त्रों में जनों के इन पहले तीर्थंकर को ही विष्णु का प्रावां अवतार माना है और वहां भी इन्हें दिगम्बर का यदि प्रचारक बताया है। जैनाचार्य उन्हें 'योगिकल्पतरु' कह कर स्मरण करते हैं ।
हिन्दु के श्रीमद्भागवत में इन्हीं ऋषभदेव का वर्णन है और उसमें उन्हें परमहंस - दिगम्बर-धर्म का प्रतिपादक
लिखा है, यथा
'एवमनुशास्यात्मजान् स्वयमनुशिष्टानोकानुदासाचं महानुभावः परमतुहृद् भगवानूपमोदेव उपशमशीलानामुपरतकर्मणाम् महामुनीम भक्तिज्ञान वैराग्यलक्षणम् पारमहंस्यधर्ममुपशिक्ष्यमाणः स्वतनयज्येष्ठं परमभाववत भगवजनपरायणं भरतं धरणीपालनायाभिषिच्य स्वयं भवन एवोवीरतं शरीरमात्र परिग्रह उन्मत्त इव गगनपरिधानः प्रकीर्णककेश श्रात्मन्यारो पिता हवनीयों ब्रह्माक्तति प्रवब्राज ||२६|| भागवतस्कंध ५ अ० ५ ।
परन्तु
अर्थात् - "इस भांति महायशस्वी और सबके सुहृद ऋषभ भगवान् ने यद्यपि उसके पुत्र सब भाति से चतुर थे, मनुष्यों को उपदेश देने के हेतु प्रशान्त और कर्मबन्धन से रहित महामुनियों को भक्तिज्ञान और वैराग्य के दिखाने वाले परमहंस ग्राश्रम को शिक्षा देने के हेतु अपने सौ पुत्रों में ज्येष्ट परम भागवत, हरि भक्तों के सेवक भरत को पृथ्वी पालन के हेतु राज्याभिषेक कर तत्काल हो संसार को छोड़ दिया और आत्मा में होगाग्नि का आरोप कर केश पो उन्मत को मि नग्न हो, केवल शरीर को संग से, ब्रह्मावर्त से सन्यास धारण कर चल निकले।"
इस उद्धरण के मोटे टाइप के अक्षरों से ऋषमवेद का परमहंस-दिगम्बर धर्म-शिक्षक होना स्पष्ट है।
तथा इसी ग्रन्थ के स्कंध २ अध्याय ७० ७६ में इन्हें "दिगम्बर र जनमत का चलाने वाला" उसके टीकाकार
1
ने लिखा है । मूल श्लोक में उनके दिगम्बरत्व का ऋषियों द्वारा वंदनीय बताया है
नाभेरसा वृषभ वाससु देव मृनुयवैव चार समद्ग जड योग
यत् परमहंस्यमृषयः पदमामनति स्वस्थः प्रशांतकरणः परिमुक्त संग ः ||१०||
'हठयोग प्रदीपिका' में सबसे पहले मंगलाचरण के तौर पर श्रादिनाथ ऋषभवेदको
उधर हिन्दुओं के प्रसिद्ध योगशास्त्र स्तुति की गई है और वह इस प्रकार है-
१. जिनेन्द्रमत दर्पण प्रथम भाग पृ० १०.
६५३