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सागर की होती है, व्यतर ज्योतिषियों की एक पल्य तथा भवनवासियों की एक सागर को। वनस्पतियों की स्थिति दश हजार वर्ष और सूक्ष्म धनस्पतियों की अन्तर्मुहूर्त है । पृथ्वीकायिक जीवों को बाइस हजार वर्ष, जलकायिक जीवों को सात हजार वर्ष और अग्निकायिक जीवों की तीन दिन को उत्कृष्ट स्थिति है। जिनागम में द्विन्द्रिय जीवों को उत्कष्ट शिति बारह वर्ष और तेइन्द्रिय की उन्चास दिन की बताई गयी है चतुरेन्द्रिय को छ: मास की और पंचेन्द्रिय जीवों की स्थिति है तीन पल्य की एवं इन्हीं की जघन्य स्थिति अन्तर मुहर्त की होती है। जिनागम में धर्म, अधर्म, आकाश पटगल जीव और काल ये छः द्रव्य बतलाये गये हैं। इनमें से धर्म अधर्म अाकाश और पुद्गल द्रव्य अजीब भी
और काय भी हैं, पुद्गल द्रव्य रूपी है और बाकी सबके सब प्ररूपी हैं और द्रव्य नित्य और पुद्गल क्रियाशील हैं और चार द्रव्य क्रिया रहित है । धर्म अधर्म और एक जीव के असंख्यात प्रदेश हैं । पुद्गलों में संख्यात, असंख्यात और अनन्त दोनों प्रकार के प्रदेश हैं । प्रकाश के अनन्त प्रदेश हैं और कालका एक-एक प्रदेश है। दीपक के प्रकाश की
भांति जीव की भी संकोच होने और विस्तृत होने की शक्ति है। अतएव बह छोटे-बड़े शरीर में पहुंच कर शरीर का प्राकार धारण कर लेता है। शरीर मन, वचन और श्वासोच्छास के द्वारा पुद्गल जीवों का उपकार करता है। जिस प्रकार मत्स्य के तरने के लिए जल सहायक होता है, तथा पथिक को रोकने के लिए छाया सहायक होती है, उसी प्रकार जीव के चलने में ज य सहायक होता है, और अधर्म ठहरने में सहायक होता है। द्रव्य परिवर्तन के कारण को काल कहते हैं । वह क्रिया परिणमन, परत्वापरत्व' से जाना जाता है। प्राकाश द्रव्य सब द्रव्यों को अवकाश देता है । द्रव्य के लक्षण सत् हैं । जो प्रति
उत्पन्न होता हो, ज्यों का त्यों बना रहता हो, वह सत् है । सर्वज्ञदेव ने ऐसा बताया है कि जिसमें गुण पर्याय हो अथवा उत्पाद, व्यय प्रौव्य हों, उसे द्रव्य कहते हैं । बचन और शरीर की क्रिया योग है । वह अशुभ दो प्रकार का होता है। मन वचन काय की शुभ क्रिया पुण्य है और अशुभ त्रिया पाप है । मिथ्यात्व, अविरत योग और कषायों से आने वाले कर्म को प्रास्रव कहते हैं। इनमें मिथ्यात्व' पांच, अविरत बारह, योग पन्द्रह प्रकार के और काय के पच्चीस भेद होते हैं। मिथ्यात्व के पांच भेद एकान्त, विपरीत विनय, संशय और अज्ञान है। छ: प्रकार के जीवों की रक्षा न करना, पंचेन्द्रिय तथा मन को वश में न करना आदि बारह भेद श्री सर्वज्ञदेव ने बतलाये हैं। सत्य मनोयोग, प्रमत्य मनोयोग, उभय मनोयोग, अनुभव मनोयोग ये चार मनोयोग के भेद हैं। काय योग के सात भेद-क्रम से औदारिक. प्रौदारिक मिश्र, वक्रियिक, वैक्रियिक-मिश्र, प्राहारक, पाहारक मिश्र और कार्माण है। कषाय वेदनीय और नौ-कषाय वेदनीय ये कषाय के दो भेद हैं। इनमें अनन्तानुबन्धी क्रोध, मान, माया, लोभ, प्रत्याख्यानावरण क्रोध. मान, माया, लोभ, अप्रत्याख्यानानरोधमान, माया, लोभ और संज्वजलन क्रोध, मान, माया, लोभ, ये सोलह प्रकार के भेद कषाय वेदनीय के हैं और हास्य, रति, अरति, शोक, भय, जुगुप्सा, पुलिंग, स्त्रीलिंग, नपुन्सलिंग, ये नौ भेद नौ कषाय बेदनीय के हैं । इस प्रकार कषाय के कुल पच्चीस भेद होते हैं । जिस प्रकार समुद्र में पड़ी हुई नौका में छिद्र हो जाने से उसमें पानी भर जाता है, उसो प्रकार मिथ्यात्व अविरति ग्रादि के द्वारा जीवों के कर्मों का प्राव होता रहता है। यह सम्बन्ध अनादिकाल से चला आ रहा है। काँ के उदय
की जीवों में राग द्वेष रूप के भाव उत्पन्न होते हैं । राग द्वेष रूप परिमाणों से अनन्स पुदगल आकर इस जीवों के साथ सम्मिलित हो जाते हैं। पुनः नये कर्मों का बन्ध प्रारम्भ होता है। इस प्रकार कर्म और प्रात्मा का सम्बन्ध आदिकाल से है। जिलागम में प्रकृति, स्थिति, अनुभाग और प्रदेश ये बन्ध के चार भेद बतलाये गये हैं। ज्ञानाबरण, दर्शनावरण, बेदनीय, मोहनीय,
नाम गोत्र और अन्तराय ये प्रकृति के पाठ भेद हैं । प्रतिमा के ऊपर पड़ी हुई धूल जिस प्रकार प्रतिमा को ढक लेती है, पसी प्रकार ज्ञानाबरण कर्म ज्ञान को ढक लेते हैं। मति ज्ञानाबरण, श्रतज्ञानावरण. प्रवधि जानाजागा Part पर केवल ज्ञानावरण ये पांच भेद ज्ञानावरण के होते है । प्रात्मा के दर्शन गुण को रोकने वाले को दर्शनावरण कहते हैं। वह
कार का होता है-चक्षदर्शनावरण प्रक्षुदर्शनावरण, अवधिदर्शनावरण, केवलदर्शनावरण निद्रा, निद्रानिद्रा, प्रचला पला-प्रचला. स्त्याने गद्धि । दुःख और सुख को अनुभव कराने वाले कर्म को वेदनीय कहते हैं । बह दो प्रकार का होता हैमाता वेदनीय और असाता वेदनीय । मोहनीय कर्म का स्वरूप मद्यत्वा धतूरा की तरह होता है। वह प्रात्मा को मोहित कर लेता है। इसके अठाईस भेद होते हैं-अनन्तानुबंधी, क्रोध, मान, माया, लोभ अप्रत्याख्यानावरण, क्रोध, मान, माया, लोभ, प्रत्याख्यानावरण, क्रोध, मान, माया, लोभ, संज्वलन क्रोध, मान, माया, लोभ, हास्य, रति अरति, शोक, भय, जुगुप्सा, स्त्रीलिंग, पुलिंग, मपन्सक लिग मिथ्यात्व सम्यकमिथ्यात्व, सम्यकप्रकृति, मिथ्यात्व । जिस प्रकार सांकल में बंधा हुमा मनुष्य एक स्थान पर स्थिर रहता है, उसी प्रकार इस जीव को मनुष्य तियंत्र आदि के शरीर में रोक कर रखे, उसे आयु कर्म कहते हैं आयु कर्म के उदय से ही मनुष्यादि भव धारण करना पड़ता है । यह कर्म चार प्रकार का होता है-मनुष्यायु, तिर्यंचायु, देवायु और नरकायु । जो अनेक प्रकार के शरीर की रचना करें, उसे नाम कर्म कहते हैं। उसके तिरानबे भेद हैं
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