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जाना पड़ता है अथवा चे कीया बिल्ली सूअर आदि नीच और ऋर होते हैं तथा एकेन्द्रिय व निगोद में उत्पन्न होते हैं। किन्तु जो जिनालय का निर्माण करता है वह संसार में पूज्य और उत्तम होता है, उसको कोति संसार में फैलता है। कृषि कुएं से अधिक जल निकालना, रथ गाड़ी बनाना, घर बनाना, कुना बनाना ग्रादि हिंसा प्रधान कार्य नीच मनुष्य ही करते हैं। पर जो प्राणियों की हिंसा के दोष से जिनालय बनाने तथा भगवान को पूजा आदि में निषेध करते हैं वे मूर्ख हैं और मृत्यु के पश्चात् निगोद में निवास करते हैं। जिस प्रकार विष की छोटो बूद से महासागर दूषित नहीं हो पाता, उसी प्रकार पुण्य कार्य में दोष नहीं लगता। पर खेती प्रादि हिमा के कार्य में दोष अवश्य लगता है, जैसे घड़े भर दूध को थोड़ो सो कोजो नष्ट कर देती है। उस मनुप्य के समग्र पाप नष्ट हो जाते हैं, जो मन वचन की शुद्धता से पात्रों को दान देता है। उसके परिणाम शान्त हो जाते हैं और प्रागम तथा चरित्र की वृद्धि होती है । वह कल्याण, पुण्य और ज्ञान विनय की प्राप्ति करता है। पात्रों को दान देने से रत्नत्रयादि गुणों में प्रेम और लक्ष्मो की सिद्धि होती है। यहां तक कि प्रात्म-कल्याण और अनुक्रम से मोक्ष तक की प्राप्ति होती है । दान देने से-ज्ञान कीति, सौभाग्य, बल प्रायु कांति प्रादि समस्त गुणों को अभिवृद्धि होती है तथा उत्तम संतान और सुन्दरी स्त्रियों प्राप्त होती हैं। जैसे गाय आदि दूध देने वाले पशुओं को घास खिलाने से दूध उत्पन्न होता है, उसी प्रकार सुपात्रों के दान से चक्रवर्ती, इन्द्र, नागेन्द्र आदि के सुख उपलब्ध होती हैं । जो दान दयापूर्वक दोन पोर दखियों को दिया जाता है, उसे भी जिनेन्द्र भगवान ने प्रशंसनीय कहा है। नपे मनुष्य पर्याय प्राप्त होता है। पर मित्र राजा, भाट, दास ज्योतिषी वैद्य प्रादि को उनके कार्य के बदले जो दान दिया जाता है, उससे पुण्य नहीं होता। परन्तु रोगियों को सदा औषधि दान देना चाहिए। औषधि के दान से सुवर्ण जैसे सुन्दर शरीर की प्राप्ति होती है। वे कामदेव से सुन्दर और सदा निरोग रहते हैं। इसी तरह जो मनुष्य एकेन्द्रिय आदि जीवों को अभय दान देता है, उसकी सेवा में उत्तम स्त्रियां रत रहती हैं। इस अभयदान के प्रभाव से गहन वन में, पर्वतों पर किसी भी हिसक जानवर का भय नहीं रहता । जो जिनेन्द्र भगवान द्वारा कहा गया हो, धर्म की शिक्षा देता हो तथा जिसमें अहिंसा प्रादि का वर्णन हो, वह आर्हत मत में शास्त्र कहलाता है। जो लोग शास्त्रों को लिखा लिखाकर दान देते हैं, वे शास्त्र पारंगत होते हैं। पर अनेक प्रकार के अनर्थ में रत मनुष्य शस्त्र, लोहा, सोना, चांदी, गौ. हाथी, घोडा प्रादि का दान करते हैं। वे नरकगामी होते हैं। शास्त्रदान से जीव इन्द्र होता है। वे परम देव के कल्याणकों में लीन रहते हैं, अनेक देवियां उनकी सेवा में तत्पर रहती है और उनकी आयु होती हैं सागरों की। वहां से वह मनुष्य भर में प्राकर स्त्रियों के भोग भोगते हैं, बड़े धनी और यशस्वी बनते हैं। वे सदा जिन भगवान की सेवा में लीन रहते हैं मधुर भाषी होते हैं और दया आदि अनेक व्रतों को धारण करते हैं। अन्त में संसार के विषयों से विरक्त होकर जिन-दीक्षा ग्रहण कर शास्त्राभ्यास में लीन होते हैं। उनकी प्रवृत्ति सदा परोपकार में रहती हैं । पुनः वे घोर तपश्चरण के द्वारा केवल ज्ञान प्राप्त कर भव्य जीवों को धर्मोपदेश करते हैं एवं चौदहवें गुणस्थान में पहुंच कर मोक्ष प्राप्त करते हैं। उपरोक्त व्रतों के तुल्य व्रत के पालन करने वाले श्रावकों को चाहिए कि वे रात्रि-भोजन का सर्वथा त्याग करदें। रात्रि भोजन हिंसा का एक अंग है, पाप की वृद्धि करने वाला तथा उत्तम गतियों को प्राप्त करने में प्रधान बाधक है। रात्रि में जीवों की अधिक वृद्धि हो जाती है। भोजन में इतने छोटे-छोटे कीड़े मिल जाते हैं, जो दिखाई नहीं देते । इसलिए कौन ऐसा धार्मिक पुरुष होगा जो रात्रि के समय भोजन करेगा। रात्रि के समय भोजन करने से पापस्वरूप जीव को सिंह, उल्लू, बिल्ली, काक, कुत्ता, गृद्ध मोर मांसभक्षी आदि नोच योनियों में जाना पड़ता है। जो शास्त्रपारदर्शी व्यक्ति रात्रि भोजन का परित्याग कर देते हैं, वे १५ दिन उपवास करने का फल प्राप्त करते हैं । ऐसे ही मुनि और धावकों के भेद से कहे गये उपरोक्त धर्मों का जो निरंतर पालन करते हैं, वे ऐहिक, पारलौकिक और अन्त में मोक्ष प्राप्ति के अधिकारी अवश्य होते हैं। भगवान महावीर स्वामी के सदुपदेश सुनकर श्रेणिक पादि अनेक राजाओं और मनुष्यों ने ब्रत धारण किये और दीक्षा ग्रहण की।
पश्चात् भगवान के भादेश के अनुसार संसार सागर से पार उतारने वाले गौतम गणधर भव्यजीवों को उपदेश देने लगे । मुनिराज गौतम-स्वामी प्रष्ट कर्मरूपी शत्रयों के विनाश के हेतु कल्याण दायक, कामाग्नि को जल के समान शान्त करके तपश्चरण में तल्लीन हए । एक दिन गौतम मुनिराज एकान्त प्रामक स्थान में उपस्थित थे। वे निश्चल और ध्यान में मग्न कर्मनाश का उद्योग कर रहे थे 1 प्रारम्भ में ही उन्होंने अधःकारण, अपूर्वकरण, अनिवृति करण के द्वारा मिथ्यात्व, सम्यक् मिथ्यात्व एवं सम्यक प्रकृति मिथ्यात्व ये तीन दर्शन मोहनीय प्रकृतियां अनन्तानुबन्धी क्रोध, मान, माया, लोभ ये चार कपाय, इस तरह सम्यदर्शन में बाधा प्रदान करने वाली इन सातों प्रकृतियों को नष्ट कर क्षपक श्रेणी में प्रारूढ़ हुए। उन्होंने ध्यान के बल से तिर्यच प्रायु, नरकायु और देवायू को नष्ट कर शेष कर्मों का नाश करने के लिए नवें गुण स्थान को प्राप्त किया। स्थावर नाम कर्म, एकेन्द्रिय जाति, द्वीन्द्रिय जाति, तेइन्द्रिय जाति चौइन्द्रिय जाति तिर्यनजाति, तिर्यगत्यानुपूर्वी, नरक गति, नरक गत्यानपूर्वी साधारण, प्रातप, उद्योत, निद्रा-निद्रा प्रचला-प्रचला, सत्यानगृद्धि, और सूक्ष्म नाम कर्म उक्त सोलह प्रकृतियों को उन्होंने नौवे