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पार्श्वनाथ अवतरित हुए थे। और इनके ढाईसौ वर्ष बीत जाने पर घी वर्द्धमान स्वामी का अविर्भाव हना था । क्रम से तीर्थकरों के शरीर की ऊंचाई पांच सौ धनुष, चार सौ पचास धनुष, चार सौ धनुष, तीन सौ पचास धनुष, तीन सौ धनुष, दो सौ पचास धनुष, दो सौ धनुष, एक सौ पचास धनुष, सौ धनुष, नब्बे धनुष, अस्सो धनुष, साठ धनुष, पचास धनुष, चालीस धनुष, पंतीस धनुष, तीस धनुष, पच्चीस धनुस, बीस धनुष, पंद्रह धनुष, दश धनुष, नव हाथ और सात हाथ को थी। चौवीस तीर्थकरों में थी पदुमप्रभ और वासुपूज्य का वर्ण लाल था, श्री नेमिनाथ और मुनिसुव्रत श्यामवर्ण के थे, सुपाश्वनाथ और पार्श्वनाथ हरित वर्ण के तथा अन्य सोलह तीर्थकरों का वर्ण तपाये हुए स्वर्ण के समान था। ऋम से-बल, हाथी, घोड़ा, बंदर, चकवा, कमल, स्वस्तिक, चन्द्रमा, मगर, वृक्ष, गैडा, भैंसा, शूकर, सेही, बज, हरिण, बकरा, मछली, कलश, कछवा, नील कमल, शंख, सर्प और सिंह ये इनके चिह्न है।
अयोध्या, कोशाम्बी, काशी, चन्दपुर, काकंदीर सिंहपुर, चंपापुर कपिला, पयोध्या, रत्नपुर दस्तिनापुर, मिथिला राजगृह, मिथिला, सौरीपुर, वाराणसी कुडपुर ये क्रम से चौबीस तीर्थंकरों को जन्मभूमियां हैं। श्री वासुपुज्य मल्लिनाथ पाश्र्वनाथ और वर्द्धमान ये पांच तीर्थकर कुमार अवस्था में ही दीक्षित हुए थे, अर्थात् बाल ब्रह्मचारी थे अन्यान्य तीर्थकर राज्य करके दीक्षित हए थे। तोम तीर्थकर-श्री ऋषभदेव बासुपूज्य और नेमिनाथ पद्मासन से मोक्ष गये हैं बाकी तीर्थकर खड़गासन से श्री ऋषभदेव चौदह दिनों तक योग निरोध कर, श्री वर्द्धमान स्वामी दो दिनों तक योग निरोध कर तथा अन्य वाइस तीर्थकर एक-एक मास तक योग निरोध कर मोक्ष पधारे थे। ऋषभदेव कैलाश से, श्री वासुपूज्य, चम्पापुर से थो नेमिनाथ गिरनार पर्वत से, श्री वर्द्धमान स्वामी पावापुर से तथा बाकी बीस तीर्थकर सम्मेद शिखर जी से मोक्ष पधारे थे। कम से चौवीस तीर्थकरों के पितानों के नाम ये हैं-श्री नाभिराय, जितामित्र, जितारि, संबर,राय, मेघप्रभ, धरण स्वामी सुप्रतिष्ठ, महासेन, सुग्रीव, रथ विष्णुराय, वसुपूज्य,कृतवर्मा, सिंहसेन मोनुराय, विश्व सेन, सूर्यप्रभा, सुदर्शन, कुभराय, सुमित्रनाथ, विजय रथ, समुद्र विजय अश्वसेन, और सिद्धार्थ तथा मातामों के –श्री मरुदेवी, विजयादेवी, सुसेना देवी, सिद्धार्था देबी, सुलक्ष्मणा देवी, रामादेवी, सुनन्दा देवी, विमला देवी, बिजया देवी, श्यामा देवी, सुकोति देवी, (सर्वयशा देवी) सुत्रता देवी, ऐरा देवी, रमादेवी, सुमित्रा देवी, ब्राह्मणी देवो, पदमावतोदेवी, विनयादेवी, शिवा देवा, वामा देवो, त्रिशला देवी नाम है। ये भी क्रम से मोक्ष प्राप्त करेंगी ऐसा सर्वज्ञ देव ने कहा है।
भरत, सगर, मघवा, सनत्कुमार, शान्तिनाथ, कुथुनाथ, अरहनाथ, सुभूम, महापद्म, हरिषेण जय और ब्रह्मदत्त ये द्वादश चक्रवतियों के नाम हैं। ये भरत क्षेत्र के छः खण्डों के नी निधि ओर चौदह रत्नों के स्वामी होते हैं । अनेक देव पीर राजा इनके चरण कमलों की सेवा में संलग्न रहते हैं। चक्रवतियों के पास रहने वाली नौ निधियों के ये नाम हैं--पांडक, माणव, काल नःसर्प, दांख, पिंगल, सर्वरत्न, महाकाल और पद्म तथा चक्र, तलवार काकिणी, दण्ड, छत्र, चर्म, पुरोहित, गृहपति, स्थपति, स्त्री हाथी, मणि, सेनापति, घोड़ा ये चौदह रत्न है। उक्त बारह चक्रवर्तियों में सभम और ब्रह्मदत्त को नरक को प्राप्ति हुई थी, मघवा और सनतकुमार स्वर्ग गये और अन्य पाठ चक्रवर्तियों को मोक्ष की प्राप्ति हुई। इनके होने का समय इस प्रकार है -
प्रथम चक्रवर्ती श्री ऋषभदेव के समय में दूसरा अजितनाथ के समय में तीसरे और चौथे ये दो श्री धर्मनाथ और शान्तिनाथ के मध्यकाल में हुए थे । पाँचवें शान्तिनाथ थे और छवें कुथुनाथ थे और सातव अरहनाथ थे। पाठवां चक्रवर्ती परनाथ और श्री मल्लिनाथ के मध्य में हुआ था नौवां मल्लिनाथ और मुनि सुद्रत के मध्य में दशवां मुनि सूत्रतनाथ और नेमिनाथ के मध्यकाल में ग्यारहवां नमिनाथ और नेमिनाथ के मध्य काल में तथा बारहबा चक्रवतों नेमिनाथ पार पाश्वनाथ के मध्यकाल में हुआ।
अश्वग्रीव, तारक, मेरु, निशुभ मधकैटभ, बलि प्रहरण (प्रहलाद) रावण, जरासंध ये नव नारायणों के नाम तथा त्रिपृष्ठ ,द्विपृष्ट, स्वंभू, पूरुषोत्तम, प्रतापीदत्त, नरसिंह, पुंडरिक, लक्ष्मण, कृष्ण ये नव प्रति नारायणों के नाम है। नारायण प्रतिनारायण दोनों ही अर्ध चक्रवर्ती होते हैं। ये निदान से उत्पन्न होते हैं। प्रतएव नरक गामा होते हैं। बिजय, अचल, सूधर्म, सुप्रभ, रवयंप्रभ आनन्दी, नन्द मित्र रामचन्द्र और बलदेव ये नव बलभद्र हैं। इनकी उत्पत्ति निदान रहित होती है अतः ये जिन दीक्षा धारण करते हैं। ये काम जीत और उर्ध्व गामी होकर स्वर्ग या मोक्ष प्राप्त करते हैं। भीमवली, जितशत्र रुद्र (महादेव। विश्वानल सूप्रतिष्ठ, अचल, पुण्डरीक, अजीतधर, जितनाभि, पीठ, सात्यक ये ग्यारह रुद्र हैं। ये ग्यारहवें गुणस्थान में गिरकर नर्क में ही गये हैं।
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