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तपश्चरण के कर्मों का विनाश होना संभव नहीं है । तपश्चरण ही कर्मरूपी धधकती हुई प्रबल अग्नि को शान्त कर देने के लिए जल के समान हैं और अशुभ कर्मरूपी विशाल पर्वत श्रेणी को ध्वस्त करने के लिए इन्द्र के बज्र के समान है। यह विषय रूपी सपों को वश में करने के लिए मंत्र के समान है, विघ्न रूपी हरिणों को रोकने के लिए जाल के समान और अंधकार को विनष्ट करने के लिए सूर्य जैसी शक्ति रखता है। तपश्चरण के प्रभाव से केवल मनुष्य ही नहीं, देव भवनवासो देव, आदि सभी सेवक बन जाते हैं। सर्प, सिंह, अग्नि , शत्र आदि के भय सर्वथा दूर हो जाते हैं। जिस प्रकार धान्य के विना खेत, शृंगार के बिना सुन्दरी, कमलों के बिना सरोवर शोभा नहीं देता। इसी तपश्चरण के द्वारा मुनिराज दो तीन भव में हो कर्म समुदाय को नष्ट कर मोक्ष-मुख प्राप्त कर लेते हैं । इसका प्रभाव इतना प्रबल है कि अरहंत देव, सबको धर्मोपदेश देने वाले तथा देव, इन्द्र, नागेद्र आदि के पूज्य होते हैं। वे भगवान, उनके नाम को स्मरण करने वाले यथा जैन धर्म के अनुसार पुण्य संनय करने वाले सत्पुरुषों को संसार महासागर से शोधकार कर देश है। जो क्षुधा, पिपासा, आदिमकारह दोषों से रहित हो, जो रागद्वेष से रहित हो, समवशरण का स्वामी तथा संसार सागर से पार करने के लिए जहाज के तुल्य हो, उसे देव कहते हैं । बुद्धिमान लोग ऐसे परहंत देव के चरणों की निरन्तर उपासना किया करते हैं और उनके पाप क्षण भर में नष्ट हो जाते हैं। भगवान जिनेन्द्र देव की पूजा रोग, पाप से मुक्त और स्वर्ग मोक्ष प्रदान करने वाली है। जो लोग ऐसे भगवान को पूजा करते हैं, उनके घर नृत्य करने के लिए इन्द्र भी बाध्य है। भगवान के चरण कमलों की सेवा से सुन्दर सन्तान, हाव भाव सम्पन्न सुन्दर स्त्रियां तथा समग्र भूमण्डल का राज्य प्राप्त होता है । भगवान की पूजा शत्रु विनाशक और शत्रु संहारक है। यह कामधेनु के सदश इच्छामों की पूर्ति करती है।
जो भव्य पुरुष भगवान की पूजा करते हैं, उनकी सुमेरू पर्वत के मस्तक पर देवों और इन्द्रों द्वारा पूजा होती है। जो 'अहिद्भयोनमः' इस प्रकार ऊंचे स्वर में उच्चारण करते हैं, वे उत्तम तथा यशस्वी होते हैं। परमात्मा को स्तुति से पुण्य समुदाय की कितनी वृद्धि होती है, इसका वर्णन करना सर्वथा कठिन है । जो लोग भगवान को निन्दा करते हैं, वे क्रूर भावों से भरे हुए इस संसार रूपी वन में दुःखी होकर भ्रमण किया करते हैं। बे नीच सदा लोभ के वशीभूत होकर यक्ष, राक्षस, भूत, प्रेतादि की उपासना करते रहते हैं। मिथ्याचारी मनुष्य धन प्रादि की इच्छा से पीपल कुनां तथा कुलदेवियों की पूजा करते हैं । जो मुनिराज सम्यक चारित्र से सुशोभित हैं और आत्मा एवं समस्त जीवों को तारने के लिए तत्पर रहते हैं, वे विद्वानों द्वारा गुरु माने जाते हैं। जिनसे मिथ्या ज्ञान का विनाश हो एवं अधर्म का नाश और धर्म को अभिवृद्धि होती हो, वे ही भव्यजीवों की सेवा के अधिकारी हैं। माता, पिता, भाई, बन्धु किसी में भी सामर्थ्य नहीं कि इस भवरूपी संसार में पड़े हुए जीवों का उद्धार कर सके। मिथ्याज्ञान से भरपूर पाखण्डी त्रिकाल में भी गुरु नहीं माने जा सकते। भला जो स्वयं मिथ्या शास्त्रों में आसक्त है, वह दूसरों का क्या उपकार कर सकती हैं। जो भगवान जिनेन्द्र देव की दिव्य वाणी का श्रवण नहीं करते, वे देव अदेव धर्म, अधर्म, गुरु कूगुरु हित, अहित का कुछ भी ज्ञान नहीं रखते हैं जो लोग जैन धर्म को भी अन्य धर्म की भांति समझते हैं, वे वस्तुत: लोहे को मणि और अन्धकार को प्रकाश समझते हैं । जिसने भगवान की दिव्य-वाणी नहीं सुनी, उसका जन्म हो व्यर्थ है। जिसने जिनवाणी का उच्चारण नहीं किया, उसकी जीभ व्यर्थ ही बनाई गई । जिसमें तीनों लोकों की स्थिति, साततत्वों, नव पदार्थो, पांच महाव्रतों का वर्णन हो तथा धर्म, अधर्म का स्वरूप बतलाया गया हो, वही विद्वानों द्वारा कही गयी जिनवाणी है। सूर्य के अभाव में जिस प्रकार संसार के पदार्थ दिखाई नहीं देते, ठीक उसी प्रकार जिनवाणी के बिना ज्ञान होना संभव नहीं है। देव, शास्त्र और गुरु का श्रद्धान करना सम्यग्दर्शन है। यह सम्यग्दर्शन मोक्ष मार्ग का पाथेय और नरकादि मार्गों का अवरोधक है। अत: बुद्धिमान लोग सम्यग्दर्शन का ही ग्रहण करते हैं । यह अज्ञान-तम का विनाशक और मिथ्याचारी का थेय करने वाला है। इसके विना व्रत शोभायमान नहीं होते । जिस प्रकार देवों में इन्द्र, मनुष्यों में चक्रवर्ती अोर समुद्रों में क्षीरसागर श्रेष्ठ है, उसी प्रकार समस्त व्रतों में सम्यग्दर्शन ही श्रेष्ठ है। दरिद्र और भूखा सम्यग्दों को धनी ही समझना चाहिए और उसके विपरीत सम्यग्दर्शन हीन धनी को निधन । इसी के प्रभाव से मनुष्यों को सांसारिक संपदायें प्राप्त होती हैं और रोग-शोकादि सब कष्ट दूर होते हैं । सम्यग्दी को भोगोपभोग की सामग्रियां मिलती हैं तथा सूर्य के समान उनको कीर्ति प्रकाशित होती है। वे अपने रूप से कामदेव को भी परास्त करते हैं और उन्हें इन्द्र, चक्रवर्ती प्रादि अनेक पद प्राप्त होते हैं। उन्हें देवांगनामों जैसी सुन्दरियां प्राप्त होती हैं और चारों प्रकार के देव उनकी सेवा करते हैं । सम्यग्दर्शन का ही प्रभाव है कि मनुष्य कर्मरूपी शत्रों को नष्ट कर तीनों भवों को पार कर जाता है। जिस स्थान पर देव शास्त्र और गुरु को निन्दा होती हो, उस स्थान पर रहने वाले मनुष्य को मिथ्यादर्शन के प्रभुत्व से नरकगामो होना पड़ता है । मिथ्यादर्शन से जीव टेढ़े, कुबड़े, नकटे गुगे तथा बहरे होते हैं। उन्हें दरीद्री, होना पड़ता है और उन्हें स्त्री भी कुरूपा मिलती है। वे दूसरों के सेवक होते हैं और उनकी अपकीति संसार भर में फैलती है । उन्हें भूत, प्रेत, यक्ष, राक्षस आदि नीच व्यंतर भवों में