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समुद्र, मनोहर सिंहासन, आकाश में देवों का विमान, सन्दर नाग-भवन, कांतिपूर्ण रत्नों की राशि और बिना धम्र की अग्नि । प्रातः काल बाजों के शब्द सुनकर महारानी उठौं । बे पूर्ण शृङ्गार कर महाराज के सिंहासन पर जा बैठी। उन्होंने प्रसन्न चित्त होकर महाराज से रात के स्वप्न कह सुनाये। उत्तर में महाराज सिद्धार्थ क्रम से स्वप्नों के फल कहने लगे-ऐरावत हाथी देखने का फल-वह पुत्र तीनों लोकों का स्वामी होगा। बैल देखने का फल-धर्म प्रचारक और सिंह देखने का फल अदभुत पराक्रमी होगा । लक्ष्मी का फल यह होगा कि, देव लोग मेरु दण्ड पर्वत पर उसका अभिषेक करेंगे। मालामों को देखने का फल, उसे अत्यन्त यशस्वी होना चाहिए तथा चन्द्रमा का फल यह होगा कि वह मोहनीय कर्मों का नाशक होगा। सूर्य के देखने से सत्पुरुषों को धर्मोपदेश देने वाला होगा। दो मछलियों के देखने का फल सुखो होगा और कलश देखने से उसका शरीर समस्त शुभ लक्षणों से परिपूर्ण होगा । सरोवर देखने से लोगों की तृष्णा दुर करेगा तथा समुद्र देखने से केवलज्ञानी होगा । सिंहासन देखने से वह स्वर्ग से आकर अबतार ग्रहण करेगा, नाग भवन देखने से वह अनेक तीर्थों का करने वाला होगा एवं रत्नराशि देखने से वह उत्तम गुणों वा धारक होगा तथा अग्नि देखने से कर्मों का विनाशक होगा। इस प्रकार पति द्वारा स्वपनों का हाल सुनकर महारानी को प्रसन्नता बहुत बढ़ गयी । वे जिनेन्द्र भगवान के अवतार की सूचना पाकर अपने जीवन को सार्थक मानने लगीं।
स्वप्न के पाठक दिन अर्थात प्रापाद शक्ल यज्टी के दिन प्राणत स्वर्ग संपुष्पक विमान के द्वारा प्राकर इन्द्र के जीव ने महारानो त्रिशला के मुख में प्रवेश किया। उस समय इन्द्रादि देवों के सिहासन कपित हो गये । देवों को अबधिज्ञान के द्वारा ज्ञात हो गया। वे सब वस्त्राभरण लेकर आये और माता की पूजा कर अपने स्थान को लौट गये। त्रिशला देवी ने चैत्र शुक्ल त्रयोदशी के दिन शुभग्रह और शुभलग्न में भगवान महावीर स्वामी को जन्म दिया। उस समय दिशाएं निर्मल हो गयीं और वायु सुगन्धित बहने लगी आकाश से देवों ने पुष्पों की वर्षा की और दुन्दुभी वजाई। जन्म के समय भी भगवान के महापुण्य के उदय होने से इन्द्रों के सिंहासन कांप उठे। उन्होंने अवधिज्ञान से जान लिया कि, भगवान महावीर स्वामी ने जन्म ग्रहण किया है। समस्त इन्द्र और चारों प्रकार के देब गाजे-बाजे के साथ कुण्डपुर में पधारे । राजमहल में पहुंच कर देवों ने माता के समक्ष विराजमान भगवान को देखा और भक्तिपूर्वक उन्हें नमस्कार किया। उस समय इन्द्राणी ने एक मायावी बालक बनाकर माता के सामने रख दिया और उस बालक को ऐरावत हाथी पर विराजमान किया और आकाश मार्ग द्वारा बैत्यालयों से सुशोभित मेरु पर्वत पर ले गयी देवों ने मंगल ध्वनि की, बाजे, बजने लगे, किन्नर-जाति के देव गाने लगे और देवांगनाओं ने शृंगार दर्पण ताल आदि मंगल द्रव्य धारण किये। सब लोग मेरु-पर्वत की पांडक शिला पर पहुंचे । वह शिला सौ योजन लम्बी, पचास योजन चौड़ी और पाठ योजन ऊंची थी। उस पर एक अत्यन्त मनोहर सिंहासन था। देवों ने उसी सिंहासन पर भगवान को पासीन किया और वे नम्रता और भक्तिपूर्वक उनका अभिषेकोत्सव करने लगे। इन्द्रादिक देवों ने मणि और सुवर्ण निर्मित एक हजार
आठ कलशों द्वारा क्षीरोदधि समुद्र का जल लाकर भगवान का अभिषेक किया। इस अभिषेक से मेरु पर्वत तक कांप उठा, पर वालक भगवान' निश्चलरूप से बैठे रहे । उस समय देबों ने भगवान के स्वाभाविक बल का अनुमान लगा लिया। इसके पश्चात् देवों ने जन्म-मरणादि दुखों को निवृति करने के लिए चन्दनादिपाठ शुभद्रव्यों से भगवान की पूजा की। भगवान जिनेन्द्र को पूजा सर्य की प्रभा के समान धर्म प्रकाश करने वाली और पापांधकार का नारा करने वाली होती है। वह भव्य जीवरूपी कमलों को प्रफुल्लित करती है। देवों ने उस बालक का शुभ नाम वीर रखा। अप्सराय तथा अनेक देव उस समय नृत्य कर रहे थे। मति, श्रुत और अवधिज्ञानों से परिपूर्ण भगवान को बालक के योग्य बस्त्राभूषणों से सुशोभित किया गया तथा पुनः देवों ने अपनी इष्ट सिद्धि के लिए स्तुति प्रारम्भ की--जिस प्रकार सूर्य की प्रभा के बिना कमलों को प्रफुल्लता संभव नहीं, उसी प्रकार हे बीर अापके अभाव में प्राणियों को तत्वज्ञान प्राप्त होना कदापि संभव नहीं। इस प्रकार स्तुति समाप्त होने पर इन्द्रादिक देवों ने भगवान को पुनः ऐराबत पर विराजमान किया और आकाश मार्गद्वाराकुण्डलपुर आये। उन्होंने भगवान के माता-पिता को यह वचन कहते हुए बालक को समर्पित कर दिया कि आपके पुत्र को मेरु-पर्वत पर अभिषेक कराकर लाये हैं। उन देवों ने दिव्य ग्राभरण और वस्त्रों से माता-पिता की पूजा को । उनका नाम बल निरूपण किया और नृत्य करते हुए अपने स्थान को चल दिये। इसके पश्चात बालक भगवान, इन्द्र की याज्ञा से आये हुए तथा भगवान को अवस्था धारण किये हुए देबों के साथ क्रीड़ा करने लगे पश्चात वे बाल्यावस्था को पार कर यौवनावस्था को प्राप्त हुए। उनकी कांलि सुवर्ण के समान तथा शरीर की ऊंचाई सात सशकी थी। उनका शरीर नि:स्वेदता ग्रादि दश अतिशयों से सुशोभित था। इस प्रकार भगवान ने कूमारकाल के तीस वर्ष नीत किये। इस अवस्था में भगवान बिना किसी कारण कमों को शान्त करने के उद्देश्य से विरक्त हो गये। उन्हें अपने प्राप यात्मज्ञान हो गया। तत्काल ही लोकांतिक देवों का आगमन हुआ । उन्होंने नमस्कार कर कहा भगवान तपश्चरण के द्वारा