________________
उस समय सारी दिशायें प्रकाशित हो गयीं और चारों ओर सुगन्धित बायु संचरित होने लगी तथा ग्रावास में जयघोष होने लगे। घर के समस्त स्त्री-पुरुषों में आनन्द छा गया। चारों ओर मनोहर बाजे बजने लगे। जिस तरह जयंत सदन्द्र और इन्द्राणी को प्रसन्नता होती है एवं स्वामी कर्तिकेय से महादेव-पार्वती को, उसी प्रकार ब्राह्मण और ब्राह्मणी को अपूर्व प्रसन्नता हुई। साण्डिल्य ने मणि, सोने चाँदी, वस्तु यादि मुह मांगे दान दिये। स्त्रियां मंगलगाना गा रही थी। जैसे किसी दरिद्र को खजाना देखकर प्रसन्नता होती है, जैसे पूर्ण चन्द्रमा को देखकर समुद्र उमड़ता है, उसी प्रकार ब्राह्मण अपने पुत्र का मुह देखकर प्रसन्नता से विह्वल हो रहा था। ठीक उसी समय एक निमित्त ज्ञानो ने ज्योतिष के आधार पर बतलाया कि, यह पुत्र गौतम स्वामी के नाम से प्रख्यात होगा। ब्राह्मण का वह पुत्र अपने पूर्वपुण्य के उदय से सूर्य सा तेजस्वी और कामदेव सा कान्तियुक्त था। एक दूसरा देव भी स्वर्ग से चल कर उसी स्थंडिला के गर्भ में पाया। वह ब्राह्मण का गार्ग्य नामक पुत्र हुअा। यह भी समस्त कलाओं से युक्त था। इसी प्रकार एक तीसरा देव रवर्ग से चलकर केसरी के उदय में पाया, जो भार्गव नामक पुत्र हुमा। ये तीनों ब्राह्मण पुत्र, कुन्ती के पुत्र पाण्डवों की भांति प्रेम से रहते थे। प्रायुवद्धि के साथ उनकी कांति गुण और पराक्रम भी बढ़ते जालथे। उन्होंने व्याकरण, छद, पुराण, आगम और सामुद्रिक विद्याय पढ़ डाली। ब्राह्मण का सबसे बड़ा पुत्र गौतम ज्योतिष शास्त्र, अलंकार, न्याय प्रादि सब में निपुण हुआ। देवों के गुरु बृहस्पति की तरह गौतम ब्राह्मण भी किसी शुभ ब्राह्मणशाला में पांच सौ शिष्यों का प्राध्यापक हुना। उसे अपने चौदह महाविद्याओं में पारंगत होने का बड़ा ही अभिमान था। वह विद्वता के मद में चूर रहता था।
राजा श्रेणिक। जो व्यक्ति परोक्ष में तीर्थकर परमदेव की वन्दना करता है, वह तीनों लोकों में वन्दनीय होता है। और जो प्रत्यक्ष में बन्दना करता है। वह इन्द्रादिकों द्वारा पूजनीय होता है। राजन् । इस व्रत रूपी वृक्ष की जड़ सम्यग्दर्शन ही है । अत्यन्त शान्त परिणामों का होना स्कंध है, करुणा शाखाये हैं। इसके पते पवित्र शील हैं तथा कीति फूल हैं । अतएव यह व्रत रूपी वृक्ष तुम्हें मोक्ष लक्ष्मी की प्राप्ति कराये । उत्तम धर्म के प्रभाव से ही राज्यलक्ष्मी एवं योग्य लक्ष्मी की प्राप्ति होती है। धर्म के ही अद्भुत प्रभाव से इन्द्रपद प्राप्त होता है, जिसके चरणों की सेवा देव करते हैं। चक्रवर्ती को ऐसी विभूति प्रदान करने वाला धर्म ही है। यही नहीं, तीर्थकर जैसा सर्वोत्तम पूज्यपद भी धर्म के प्रभाव से ही प्राप्त होता है। अतएव तू सर्वदा धर्म में लीन रह।
कुंडपुर का वर्णन भारत क्षेत्र के अन्तर्गत ही अत्यन्त रमणीय एवं विभिन्न नगरों से सुशोभित विदेह नाम का एक देश है। उस देश में कुण्डपुर नामक एक नगर अपनी भव्यता के लिए प्रख्यात है। वह नगर बड़े ऊंचे कोटों से घिरा हुआ है एवं वहां धर्मात्मा लोग निवास करते हैं। वहां के मणि, कांचन आदि देखकर यही होता है कि, वह दूसरा स्वर्ग है। उस नगर में सिद्धार्थ नाम के राजा राज्य करते थे। उनकी धार्मिकता प्रसिद्ध थी। वे अर्थ, धर्म, काम, मोक्ष चारों पुरुषार्थों को सिद्ध करने वाले थे। उन्हें विभिन्न राजाओं की सेवाएं प्राप्त थीं। इतना ही नहीं सुन्दरता में कामदेव को परास्त करने वाले, शत्रुजीत, दाता और भोक्ता थे। नीति में भी निपुण थे-अर्थात् समस्त गुणों के प्रागार थे। उनकी रानी का नाम त्रिशला देवी था। रानी की सुन्दरता का क्या कहना-चन्द्रमा के समान मुख मण्डल, मृग की सी यांखें, कोमल हाथ और लाल अधर अपनी मनोहर छटा दिखला रहे थे। उसकी जांधे कदली के स्तम्भों सी थीं। नाभि नम्र थी, उदर कृश था, स्तन उन्नत और कठोर थे, धनुष के समान भोंहें एवं तोते के समान नाक थी। ऐसी रूपवती महारानी के साथ राजा सिद्धार्थ सुख पूर्वक जीवन व्यतीत कर रहे थे।
इन्द्र को प्राशा थी--भगवान महावीर स्वामी के जन्म कल्याणक के १५ मास पूर्व से ही सिद्धार्थ के घर रत्नों को वर्षा करने की। देव लोग इन्द्र की प्राज्ञा का अक्षरशः पालन करते थे । अष्टादश कन्यायें एवं और भी मनोहर देवियां राजमाता की सेवा में तत्पर रहती थीं। एक दिन महारानी त्रिशला देवी कोमल सज्जा पर सोयी हुई थीं। उन्होंने पुत्रोत्पति की सूचना देने वाले सोलह स्वप्न देखे-ऐरावत हाथी, श्वेत बैल, गरजता हुआ सिंह, शुभ लक्ष्मी, भ्रमरों के कलरव से सुनोभित दो पुष्प मालायें, पूर्ण चन्द्रमा, उदय होता हुआ सूर्य सरोवर में कीड़ारत दो मछलियां, सुवर्ण के दो कलश, निर्मल सरोवर, तरंगयुक्त